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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए वड्डीए भंगविचओ ३१७ ६५४६. आदेसेण णेरइएमु छब्बीसं पयडीणमणंतगुणवद्रि--अवहि. णियमा अत्थि । सेसएक्कारसपदा भयणिज्जा । अक्खपरावत्तेण सुत्तगाहाए च आणिदभंगा एत्तिया होंति १७७१४७ । णवरि अणंताणु०चउक्क. भयणिज्जपदाणि बारह । तेसिं भंगा ५३१४४१ । सम्म० अवहि. णियमा अत्थि । सेसपदा भयणिज्जा० । भंगा णव । एवं सम्मामि० । णवरि भंगा तिएिण। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्खतिण्णिमणुस-देव-भवणादि जाव सहस्सारो त्ति । णवरि विदियादिपुढवि-पंचिंतिरि०जोणिणी-भवण०-वाण-जोदिसिएसु सम्मत्तस्स तिषिण भंगा । पंचिं.तिरिक्खअपज्ज० सम्म०-सम्मामि० णत्थि भंगा। मणुस्सअपज्ज. सव्वपयडी० सव्वपदा भयणिज्जा । छब्बीसं पयडीणं भंगसमासो एसो १५६४३२२ । सम्म०-सम्मामि० भंगा दोषिण । आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति अहावीसं पयडीणमवहि० णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । णवरि आणदादि जाव गवगेवज्जा त्ति अणंताणु०४ अणंतगुणवडि-अवहिदं णियमा अस्थि । वावीसं पयडीणं भंगा तिगिण । अणंताणु० चउक्क० भंगा जाणिय वत्तव्वा । सम्मत्तभंगा णव । सम्मामि० भंगा तिषिण। उवरि सत्तावीसं पयडीणं भंगा तिरिण । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । भंग तीन होते हैं। 5 ५४६. आदेशसे नाकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थित विभक्ति नियमसे होती हैं। शेष ग्यारह पद भजनीय हैं। अक्षपरावर्तन और सूत्र गाथाके द्वारा निकाले गये भंगो की संख्या १७७१४७ होती है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भजनीय पद बारह हैं उनके भंग ५३१४४१ होते हैं। सम्यक्त्वकी अवस्थितविभक्ति नियमसे होती है, शेष पद भजनीय हैं। भंग नौ होते हैं। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके विषयमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उसके तीन भंग होते हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवा में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि दूसरी आदि पृथिवीयो', पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्को में सम्यक्त्वके तीन भंग होते हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तको में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके भंग नहीं होते। मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियों के सभी पद भजनीय हैं। छब्बीस प्रकृतियो के भंगों का जोड़ १५९४३२२ होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके दो भंग होते हैं। आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवो में अट्ठाईस प्रकृतियो का अवस्थित पद नियमसे होता है, शेष पद भजनीय हैं। इतना विशेष है कि आनतसे लेकर नववेयक तकके देवोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थितविभक्ति नियमसे होती है। बाईस प्रकृतियोंके तीन भंग होते हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भंग जानकर कहने चाहिये। सम्यक्त्व प्रकृतिके नौ भंग होते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके तीन भंग होते हैं। नवप्रैवेयकसे ऊपर सत्ताईस प्रकृतियोंके तीन भंग होते हैं। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये। . विशेषार्थ ओघसे बाईस प्रकृतियो में छह वृद्धियां, छ हानियां और अवस्थितविभक्ति ये तेरह पद नियमसे होते हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य पद सदा नहीं होता, विकल्पसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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