SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ क्योंकि एक परमाणुसे दूसरे परमाणुमें हीनाधिक गुणपर्याय देखा जाती है। इस दूसरे वर्गके अविभागप्रतिच्छेदोंका प्रमाण यद्यपि अनन्त है तो भी संदृष्टिके लिए आठ कल्पना करना चाहिए और पूर्वोक्त वर्गके दक्षिण भागमें उसकी स्थापना कर देनी चाहिए -८८ । इस क्रमसे पूर्वोक्त परमाणुके समान एक.एक परमाणुको लेकर उसके स्पर्शगुणके अविभागप्रतिच्छेद करनेपर एक एक वर्ग उत्पन्न होता है। ऐसा तब तक करना चाहिए जब तक जघन्य गुणवाले सब परमाणु समाप्त न हों। ऐसा करने पर अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण वर्ग प्राप्त होते हैं। उनका प्रमाण संदृष्टिरूपमें इस प्रकार है-८८८८ । द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा इन सभी वर्गोंकी वर्गणा संज्ञा है, क्योंकि वोंके समूहको वर्गणा कहते हैं। इस प्रकार इन वगोंको पृथक् स्थापित करके उप्त परमागुपुंजमेंसे फिर एक परमाणु लो और बुद्धिके द्वारा उसका छेदन करके, छेदन करनेपर पूर्वोक्त परमाणुओंसे इसमें एक अधिक अविभागप्रतिच्छेद पाया जाता है। उसका प्रमाण संदृष्टिरूपमें ९ है। यह एक वर्ग है और इसको पृथक स्थापित करना चाहिए। इस क्रमसे उस परमाणुके समान अविभागप्रतिच्छेदवाले जितने परमाणु पाये जांय उनमेंसे एक एकके बुद्धिके द्वारा खण्ड करके अनन्त वर्ग उत्पन्न करने चाहिए। उनका प्रमाण इस प्रकार है९९९। यह दूसरी वर्गणा है। इसको प्रथम वर्गणाके आगे स्थापित करना चाहिए । इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पांचवी आदि वर्गणाएं, जो कि एक एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदको लिए हुये हैं, उत्पन्न करनी चाहिए । इन वर्गणाओंका प्रमाण अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण है। इन सब वर्गणाओंका एक जघन्य स्पर्धक होता है, क्योंकि वर्गणाओंके समूहको स्पर्धक कहते हैं। इस प्रथम स्पर्धकको पृथक् स्थापित करके पूर्वोक्त परमाणुपुंजमेंसे एक परमाणुको लेकर बुद्धिके द्वारा उसका छेदन करनेपर द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका प्रथम वर्ग उत्पन्न होता है । इस वर्गमें पाये जानेवाले अविभागप्रतिच्छेदोंका प्रमाण संदृष्टिरूपसे १६ है । इस क्रमसे अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागमात्र समान अविभागप्रतिच्छेदवाले परमाणुओंको लेकर और बुद्धिके द्वारा उनका छेदन करनेपर उतने ही वर्ग उत्पन्न होते हैं। इन वर्गोंका समुदाय दूसरे स्पर्धकका प्रथम वर्गणा कहलाता है। इस प्रथम वर्गणाको प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके आगे अन्तराल देकर स्थापित करना चाहिए। इस क्रमसे वर्ग, वर्गणा और स्पर्धकको जानकर तब तक उनकी उत्पत्ति करनी चाहिए जब तक पूर्वोक्त परमाणुओंका समुदाय समाप्त न हो । इस प्रकार स्पर्धकोंकी रचना करनेपर अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धक और वर्गणाएं उत्पन्न होती हैं। इनमेंसे अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणुमें जो अनुभाग पाया जाता है उसेही जघन्य स्थान कहते हैं। इसकी संदृष्टि इस प्रकार है प्रथम स्प. द्वि. स्प, तृ. स्प. | चर. प. पं. स्प. प. स्प, १६ १७ प्र० वर्गणा ८ ८ ८ ८ द्वि० वर्गणा ९ ९ ९ तृ० वर्गणा| १० १० च० वर्गणा ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy