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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा ३४५ दोअविभागपडिच्छेदुत्तरतिषिण०-चत्तारि०-पंच०-छ०-सत्तादिअविभागपडिच्छेदुत्तरकमेण अवहिदअगंतपरमाणू घेत्तूण तदणुभागस्स पण्णच्छेदणयं काऊण अभवसिद्धिएहि अणंतागुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तवग्गणाओ उप्पाइय उवरि उवरि रचेदवाओ । एवमेत्तियाहि वग्गणाहि एगं फद्दयं होदि, अविभागपडिच्छेदेहि कमवड्डीए एगेगं पंतिं पडुच्च अवहिदत्तादो। उरिमपरमाणू अविभागपडिच्छेदसंखं पेक्खिदण कमहाणीए अभावेण विरुद्धाविभागपडिच्छेदसंखत्तादो वा । $ ५७४. पुणो पढमफद्दयचरिमवग्गणाए एगवग्गाविभागपडिच्छेदेहितो एगविभागपडिच्छेदेणुत्तरपरमाणू णत्थि, किंतु सव्वजीवेहि अणंतगुणाविभागपडिच्छेदेहि अहिययर परमाणू तत्थ चिरंतणपुजे अत्थि । ते घेत्तूण पढमफद्दयउप्पाइदकमेण विदियफद्दयमुप्पाएयव्वं । एवं तदियादिकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्ताणि फद्दयाणि उप्पाएदव्वाणि । एवमेत्तियफद्दयसमूहेण मुहुमणिगोदजहण्णाणुभागहाणं होदि। दो अविभागप्रतिच्छेद अधिक, तीन, चार, पांच, छह और आत आदि अविभागप्रतिच्छेद अधिकके क्रमसे अवस्थित अनन्त परमाणुओंको लेकर उनके अनुभागका,बुद्धिके द्वारा छेदन करके अभव्यराशिसे अनन्तगुणी और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण वर्गणााको उत्पन्न करके उन्हें ऊपर ऊपर स्थापित करो। इस प्रकार इतनी वर्गणाओंका एक स्पर्धक होता है, क्योंकि वहां अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा एक एक पंक्तिके प्रति क्रमवृद्धि अवस्थितरूपसे पाई जाती है । अथवा ऊपरके परमाणुओंमें अविभागप्रतिच्छेदोंकी संख्याको देखते हुए वहां क्रमहानिका अभाव होनेसे इसके विरुद्ध अविभागप्रतिच्छेदोंकी संख्या पाई जाती है। ५७४. पुनः प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक वर्गके अविभागप्रतिच्छेदोंसे एक अविभागप्रतिच्छेद अधिकवाला परमाणु आगे नहीं है, किन्तु सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद अधिकवाले परमाणु उस चिरंतन परमाणुपुंजमें मौजूद हैं। उन्हें लेकर जिस क्रमसे प्रथम स्पर्धककी रचना की थी उसी क्रमसे दूसरा स्पर्धक उत्पन्न करना चाहिए। इसी प्रकार तीसरे अदि स्पर्धकोंके क्रमसे अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागमात्र स्पर्धक उत्पन्न करने चाहिए। इस प्रकार इतने स्पर्धकोंके समूहसे सूक्ष्म निगोदिया जीवका जघन्य अनुभागस्थान बनता है। विशेषार्थ-जघन्य अनुभागस्थानके समस्त परमाणुओंको एकत्र करके उनमेंसे सबसे मन्द अनुभागवाले परमारगुको लो और उसके रूप, रस और गन्धगुणको छोड़कर स्पर्शगुणको बुद्धि के द्वारा ग्रहण करके उसके तब तक छेद करो जब तक अन्तिम छेद प्राप्त हो । उस अन्तिम खण्डको, जिसका दूसरा खण्ड नहीं हो सकता, अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं। स्पर्शगुणके उस अविभागप्रतिच्छेद प्रमाण खण्ड करने पर सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं । एक परमाणुमें रहनेवाले उन अविभागप्रतिच्छेदोंके समूहको वर्ग कहते हैं। अर्थात् प्रत्येक परमाणु एक एक वर्ग है । यद्यपि उसमें पाये जानेवाले अविभागप्रतिच्छेदोंका प्रमाण अनन्त है फिर भी संदृष्टिके लिए उसका प्रमाण ८ कल्पना करना चाहिए । पुनः उन परमाणुओंमेंसे प्रथम परमाणुके समान अविभागप्रतिच्छेदवाले दूसरे परमाणुको लो और उसके भी स्पर्शगुणके बुद्धिके द्वाराखण्ड करने पर उतनेही अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं । यहां पर यह शंका हो सकती है कि परमाणु तो खण्डरहित है उसके खण्ड कैसे किए जा सकते हैं ? इसका उत्सर यह है कि परमाणुद्रव्य अखण्ड अवश्य है किन्तु उसके गुणकी बुद्धिके द्वारा खण्डकल्पना की जासकती है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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