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________________ ३४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ५७३. संपहि एदस्स जहण्णाणुभागहाणस्स सख्वपडिबोहणहमिमा परूवणा कीरदे। तं जहा-जहण्णाणुभागहाणस्स सव्वकम्मपरमाणुपुजं करिय पुणो तत्थ सव्वमंदाणुभागपरमाणुप्पासगुणं पण्णाए पुध कादूण जहण्णवडिगुणपमाणेण छिणणे सव्वजीवेहि अणंतगुणा सव्वागासघणादो वि अणंतगुणअविभागपडिच्छेदा लभंति । तेसिं वग्गमिदि सणं करिय ते पुध ठवेदव्वा । पुणो पुव्विल्लपरमाणुपुजम्मि तस्सरिसगुणं विदियपरमाणु घेत्तूण तदणुभागस्स पुव्वं व पण्णच्छेदणए कदे तत्तिया चेव अणुभागाविभागपडिच्छेदा लब्भंति । एदेसि पि वग्गमिदि सण्णं करिय पुव्विल्लवग्गस्स दाहिणपासे एदे वि पुध ठवेयव्वा । एवमेगेगसरिसधणियपरमाणू घेत्तण पण्णच्छेदणए करिय दाहिणपासे कंडुज्जुवपंतिरयणा कायव्वा जाव अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तसरिसधणियपरमाणू समत्ता ति । एदेसि सव्वेसि पि वग्गणा त्ति सण्णा । पुणो गहिदसेसपरमाणुजम्मि अवरेगं परमाणु घेत्तूण पण्णच्छेदणए कदे पुव्विल्लाविभागपडिच्छेदणएहिंतो संपहियअविभागपडिच्छेदा एगेण अविभागपडिच्छेदेण अहिया होति । एदेसि वग्गसण्णं कादूण पुव्विल्लाणमुवरि ठवेदव्वा । पुणो एदेण परमाणुणा अविभागपडिच्छेदेहि सरिसा अभव्वसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता परमाणू तत्थ लब्भंति । तेसि पि अणुभागस्स पुव्वं व पण्णच्छेदणए कदे अणंता ते वग्गा भवंति । एदे सव्वे घेत्तण विदियवग्गण्णा होदि। एवं ५७३. अब इस जघन्य अनुभागस्थानके स्वरूपको समझाने के लिए यह कथन करते हैं। यथा--जघन्य अनुभागस्थानके सब कर्मपरमाणुओंको एकत्र करके उसमेंसे सबसे मन्द अनुभागवाले परमाणुके स्पर्शगुणको बुद्धिके द्वारा पृथक् करके, जघन्य वृद्धिरूप अविभागप्रतिच्छेदके प्रमाणसे उसका छेदन करनेपर वहां सब जीवराशिसे अनन्तगुणे और घनरूप समस्त आकाशसे भी अनन्तगुणे अविभागी प्रतिच्छेद पाये जाते हैं। उनकी ‘वर्ग' संज्ञा करके उन्हें पृथक् स्थापित कर देना चाहिए। पुन: पहले के परमाणु समूहमेंसे उस परमाणुके समान गुणवाले दूसरे परमाणुको लो। उसके अनुभागके भी पहले के समान बुद्धिक द्वारा छेद करनेपर उतने ही अविभागी प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं। इनकी भी 'वर्ग' संज्ञा रखकर पहले वर्गके दाहनी और उन्हें भी पृथक् स्थापित कर देना चाहिए। इस प्रकार समान धनवाले एक एक परमाणुको लेकर बुद्धिके द्वारा उसके स्पशगुणका छेदन करके दक्षिण पाश्वमें वाणके समान ऋजु पंक्तिमें रचना करते जाओ और ऐसा तबतक करो जबतक अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिक अनन्तवें भागप्रमाण समान धनवाले परमाणु समाप्त हों। उन सब वर्गोंकी वर्गणा संज्ञा है। पुन: ग्रहण करनेसे बाकी बचे हुए परमाणु पुंजमेंसे अन्य एक परमाणुको लेकर बुद्धिके द्वारा उसके अनुभागका छेदन करनेपर पहलेके प्रत्येक परमाणुमें पाये जानेवाले अविभागी प्रतिचछेदोंसे इसमें पाये जानेवाले अविभागी प्रतिच्छेद एक अधिक होते हैं । इनकी भी 'वर्ग' संज्ञा रखकर इन्हें पहलेके वर्गों के ऊपर स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार उस परमाणुजमें अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण परमाणु ऐसे पाये जाते हैं जिनके अविभागी प्रतिच्छेद उस एक परमाणुके अविभागी प्रतिच्छेदोंके समान होते हैं। उन परमाणुओंके भी अनुभागका पहलेके समान बुद्धिके द्वारा छेद करनेपर वे अनन्त वर्ग हो जाते हैं। इन सबको लेकर दूसरी वर्गणा होती है । इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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