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( १८ ) बाद अवस्थान भी सम्भव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसके तेरह अनुयोगद्वार हैं । नाम वे ही हैं जिनका निर्देश भुजगारविभक्तिके समय कर आये हैं। उनमेंसे समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा मोहनीय सामान्यकी छह वृद्धियाँ, छह हानियाँ और अवस्थान ये पद होते हैं। इसीप्रकार छब्बीस उत्तरप्रकृतियोंकी अपेक्षासे भी जानना चाहिए । मात्र यहाँ अनन्तानुबन्धीचतुष्कका प्रवक्तब्य पद भी जानना चाहिए। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अनन्तगुणहानि, अवस्थान और प्रवक्तव्य ये तीन पद ही जानने चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय ही हानि होती है। वह भी केवल अनन्तगुणहानिरूप ही होती है, इसलिए इसकी हानि एक प्रकारकी ही बतलाई है। शेष अनुयोगद्वारोंका विचार मूलको देखकर कर लेना चाहिए।
स्थानमरूपणा कर्मके अनुभागका विचार अविभागप्रतिच्छेद, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक और स्थान इन पाँच विशेषताओंके साथ किया जाता है। इन पाँचों विशेषताओंकी चरचा मूलमें पृष्ठ ३४१ के विशेषार्थमें की गई है, इसलिए इसे वहांसे जान लेनी चाहिए। यहां मुख्यरूपसे जो विचार करना है वह यह है कि अलग अलग कर्मोंकी अलग अलग फलदानशक्ति और एक ही कर्मकी हीनाधिक फलदानशक्ति क्यों होती है। एक उदाहरण यह दिया जाता है कि जिस प्रकार एक ही प्रकारका भोजन पाककालमें अनेक प्रकारके रस मज्जा श्रादि धातु उपघातु रूपसे परिणमन करता है उसीप्रकार कर्मका बन्ध होने पर वह भी पाककालमें अनेक प्रकारके फलोंको जन्म देता है। पर इस समाधानसे मूल बात पर बहुत ही कम प्रकाश पढ़ता है, क्योंकि कर्मका बन्ध होने पर उसमें जो स्थिति और अनुभाग प्राप्त होता है उसोके अनुसार उसका पाक (फल) देखा जाता है। वन्धके बाद उसमें अन्य पाचनक्रिया नहीं होती। यह कहा जा सकता है कि बन्धके बाद भी उसमें संक्रमण, उत्कर्षण व अपकर्षण क्रिया होती ही है, इसलिए बन्धके बाद अन्य पाचनक्रिया नहीं होती यह मानना ठीक नहीं है । पर इस प्रश्नका समाधान यह है कि यह संक्रमण प्रादिरूप क्रिया भी बन्धका ही एक भेद है। जिस प्रकार कषाय आदि परिणामोंसे नवीन कर्मका बन्ध होता है उसी प्रकार वे परिणाम बंधे हुए कर्ममें भी अपनी जातिके भीतर परिवर्तन, रसोत्कर्ष व रसहानि करते हैं । उसे कर्मका पाक नहीं कहा जा सकता । पाक शब्दका प्रयोग दो अर्थों में होता है-एक
आत्मसात करने अर्थमें और दूसरा भोग अर्थमें। भोजनको ग्रहण करते समय उसका सात्मीकरण नहीं होता । उसके उदरस्थ होने पर ही पाचन क्रिया व्यापारके द्वारा सात्मीकरण होता है। किन्तु कर्मके विषयमें ऐसी बात नहीं है। उसे जिस समय जीव ग्रहण करता है उसी समय सात्मीकरण हो जाता है। यह सम्भव है कि जिस रूपमें उसे ग्रहण किया है उसी रूपमें वह फल दे। यह बात अन्य है कि एक बार सात्मीकरण हो जानेके बाद भी जीव कालान्तरमें नवीन कर्मके समान पुनः पुनः उसका सात्मीकरण करता रहता है। जीवके द्वारा की गई इस क्रियाका नाम ही संक्रमण और उत्कर्षण आदि है। इसलिए हमें यह जानना श्रावश्यक है कि कर्ममें यह विविध प्रकारकी फलदानशक्ति क्यों और किस प्रकार उत्पन्न होती है ? यह तो प्रत्येक विचारक जानता है कि जीव श्रमूर्तिक है और कर्म मूर्तिक । अमूर्तिक और मूर्तिकका बन्ध नहीं होना चाहिए, क्योंकि दो द्रव्योंके परस्पर अनुप्रविष्ट होकर स्पर्श विशेषका नाम बन्ध है, अतः बन्ध उन्हीं दो द्रव्योंका हो सकता है जिनमें स्पर्शगुण हो । आत्मामें स्पर्शगुण तो होता नहीं फिर उसका कर्मके साथ बन्ध कैसा ? प्रश्न मार्मिक है। शास्त्रकारोंने इस प्रश्नका यह समाधान किया है कि जीव अनादिसे कर्मबद्ध है। कर्मको वह अपने परिणामोंसे ही ग्रहण करता है, इसलिए दोनों मिलकर एकक्षेत्रागाही हो कर रहते हैं और दोनोंकी क्रिया प्रतिक्रियाका एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। तथा इस क्रिया प्रतिक्कियाके अनुसार प्रति समय नये नये कारणकूट मिलते रहते हैं । जहां तक हलन चलन रूप क्रियाका सम्बन्ध है वहां
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