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________________ २७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । अणुभागविहत्ती ४ इहिस्स ? सेसपदाणमोघभंगो । अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति सत्तावीसंपयडीणमप्पदर०-अवहि० सम्मामि० अवहि० कस्स ? अण्णद० । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । ४७६. कालाणुगमेण दुविहो णिदे सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छत्तअहकसाय--अहणोक० भुज ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अप्पदर० जहण्णुक्क० एगस० । अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयं । एवमणंताणु० चउक्क० । णवरि अवत्तव्व. जहण्णुक्क० एगस० । सम्मत्त० अप्पदर० ज० एगस०, उक्क. अंतोमु० । सम्मामि० अप्पदर० जहण्णुक्क० एगस०, दोण्हं पि अवहि. ज. अंतोमु०, उक्क० वेलावहिसागरो० तीहि पलिदोवमस्स असंखे. भागेहि सादिरेयाणि । दोण्हं पि अवत्तव्य. जहण्णुक्क० एगस० । चदुसंज. भुज०अप्पद० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अवहि० मिच्छत्तभंगो, धुवबंधित्तादो । सम्मादिहिम्मि णिरंतरं बज्झमाणचदुसंजलणाणमणुभागस्स कथमवहिदत्तं, अणुभागखंडयचतुष्ककी भुजगार और अवक्तव्य विभक्तियां किसके होती हैं ? मिथ्यादृष्टिके होता हैं। शेष पदोंका भंग ओघके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अल्पतर और अवस्थित विभक्ति तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? किसीके भी होती है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थ-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अल्पतर विभक्ति दर्शनमोहके क्षपकके होती है और अवक्तव्य विभक्ति प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिके होती है, अतः दोनों विभक्तियाँ सम्यदृष्टिके बतलाई हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य विभक्ति अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके मिथ्यात्वमें आकर पुनः संयोजन करनेवाले के होती है अतः उसका स्वामी मिथ्यादृष्टि को बतलाया है। शेष बाईस प्रकृतियों की भुजगार विभक्ति तो मिथ्यादृष्टिके ही होती है, क्योंकि इनका अनुभाग मिथ्यादृष्टि ही बढ़ा सकता है। और अल्पतर तथा अवस्थित विभक्ति सम्यग्दृष्टि के भी होती है और मिथ्यादृष्टिके भी। इसी प्रकार आदेशसे भी लगा लेना चाहिये। ४७६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, आठ कषाय और आठ नोकषायोंकी भुजकारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कका काल जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्परविभक्ति का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। दोनों ही प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके तीन असंख्यातवें भाग अधिक दो छियासठ सागर है। दोनों ही प्रकृतियोंकी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। चार संज्वलनोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । अवस्थितविभक्तिका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है, क्योंकि संज्वलन कषाय ध्रुवबन्धी है। शंका-सम्यग्दृष्टि में निरन्तर बँधनेवाली चारों संज्वलन कषायोंका अनुभाग अवस्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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