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गा० २३ ]
अणुभागविहत्तीए सण्णां $ ५. अवगद० उक्क० सव्वघादी । अणुक्क० सव्वघादी देसघादी वा । एवमाभिणि-सुद--ओहि०--मणपज्ज०--संजम०--सामाइय--छेदो०--सुहुम०--अोहिदंस०सुक्कले०-सम्मादिहि०-खइयसम्मादिहि. त्ति । अकसाइ० उक्क० अणुक० सव्वघादी० । एवं जहाक्खाद०संजदे त्ति ।
एवमुक्कस्ससण्णाणुगमो समत्तो। ६. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्दे सो-अोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेणं मोह० जहण्णाणुभागविहत्ती देसघादी । अजहण्णाणु० देसघादी सव्वघादी वा । एवं मणुसतिय--पंचिंदिय--पंचिंदियपज्ज --तस--तसपज्ज-पंचमण०-पंचवचि०-काययोगि०ओरालियकाय०--अवगदवेद० -चत्तारिकसाय--आभिणि० --सुद० -ओहि०--मणपज्ज.संजद०-सामाइय--छेदो०--सुहुम०सांपराइय--चक्खु०--अचक्खु०--ओहिदंसण-सुक्कले०भवसि०-सम्मादि०-खइय०-सण्णि-आहारि त्ति । जैसा कि आगेके स्थानसंज्ञा अनुयोगद्वारसे स्पष्ट है । तथा विस्थानिक अनुभागका भी वही अंश रहता है जो सर्वघाती है अतः इनमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती होती है।
६५. वेद रहित जीवकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती है और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती अथवा देशघाती है। इसीप्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः पर्ययज्ञानी, संयमी, सामायिकसंयमी, छेदोपस्थापनासंयमी, सूक्ष्मसाम्परायसंयमी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टिके जानना चाहिये। अकषायिक जीवकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती है। इसी प्रकार यथाख्यातचारित्रसंयतमें जानना चाहिये।
विशेषार्थ-मूलमें कही गई क्षायिकसम्यग्दृष्टि पर्यन्त मार्गणाओंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति तो सर्वघाती ही होती है किन्तु अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती भी होती है और देशघाती भी होती है। इसका कारण यह है कि इनके क्षपकरणीमें एकस्थानिक अनुभागकी भी सत्ता रहती है । अकषायिक और यथाख्यातसंयत जीवोंके मोहनीयके सर्वघाती अनुभागकी ही सत्ता रहती है, क्योंकि उपशमश्रणीकी अपेक्षा ही इन मार्गणाओंमें मोहनीयका सत्त्व सम्भव है । अतः उनके दोनों ही अनुभाग सर्वघाती होते हैं।
इस प्रकार उत्कृष्ट संज्ञानुगम समाप्त हुआ। ६६. अब जघन्य अनुभागविभक्तिका प्रकरण है। निर्दोश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्ति देशघाती है और अजघन्य अनुभागविभक्ति देशघाती अथवा सर्वघाती है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, पंचेन्द्रिय, पञ्चन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचो मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, अपगतवेदी, चारों कषायवाले, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयमी, छेदोपस्थापना संयमी, सूक्ष्मसांपरायसंयमी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारकोंमें समझना चाहिये ।
१. ता० प्रतौ य । प्रोघेण इति पाठः । २. प्रा० प्रतौ मणुसतिय पंचिंदियपज० इति पाठः ।
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