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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ पंचिंदिय-पंचिंदियपज०-तस-तसपज्जत्त-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालियकाय०चत्तारिकसाय-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०-सण्णि०-आहारि त्ति । ४. आदेसेण णेरइएसु उक्क० अणुक्क० सव्वघादी । एवं सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज्ज-सव्वदेव-सव्वेइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-सव्वपंचकाय--तसअपज्ज०--ओरालियमिस्स०--वेउव्विय०--वेउ० मिस्स०--कम्मइय०--आहार०आहारमिस्स०-तिण्णिवेद-तिण्णिअण्णाण-परिहार०-संजदासंजद०-असंजद०--पंचले०अभवसि०-वेदग०-उवसम०-सासण-सम्मामि०-मिच्छादिहि-असण्णि-अणाहारि ति । awwarrrrrrner प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, जसपर्याप्त, पांचों मनोयागी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक में जानना चाहिये। विशेषार्थ मोहनीय कर्मके अनुभागका वर्णन करनेके लिये जो तेईस अनुयोगद्वार बतलाये हैं उनमेंसे पहले संज्ञाके द्वारा अनुभागका वर्णन किया है । संज्ञाके दो भेद कहे हैं-एक घाती दूसरा स्थान । मोहनीय कर्म घाती है, क्योंकि वह आत्माके गुणोंको घातता है । इसलिये उसके अनु. भागकी घाति संज्ञा है। वह अनुभागकी हीनाधिकताको लिए हुए अनेक प्रकारका होता है। सबसे अधिक फलदानकी शक्तिको उत्कृष्ट अनुभाग कहते हैं और उसके सिवा शेषको अनुत्कृष्ट कहते हैं। हीन फलदानकी शक्तिको जघन्य अनुभाग कहते हैं और उसके सिवा शेषको अजघन्य कहते हैं । इस प्रकार घाती मोहनीय कर्मके अनुभागके चार प्रकार हो जाते हैं-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य । इन चार भेदों में से उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती ही होती है परन्तु अनुत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिमें जघन्य भी सम्मिलित है, इस लिए वह सर्वघाति और देशघाति दोनों प्रकार की होती है। जो अनुभागविभक्ति आत्माके गुणोंको पूरी तरहसे घातती है वह सर्वघाती है और जो उन्हें एकदेशसे घातती है वह देशघाती है। अनुभागके भेद प्रभेदोंको सर्वघाती और देशघातीकी तरह एक दूसरे प्रकारसे भी विभाजित किया जाता है और वह प्रकार है स्थानसंज्ञाका । मोहनीय कर्मके अनुभागस्थानों को चार हिस्सोंमें बाटा जाता है—एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक । एकस्थानिक स्पर्धक देशघाती ही होते हैं और विस्थानिक स्पर्धक देशघाती भी होते हैं और सर्वघाती भी होते हैं । किन्तु शेष अनुभाग स्पर्धक सर्वघाति ही होते हैं। ४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग विभक्ति सर्वघाती है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्तक, सब देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पृथ्वीकायिक, सब जलकायिक, सब तेजकायिक, सब वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, तीनों वेदी, कुमतिज्ञानी, कुश्रुतज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, परिहारविशुद्धसंयमी, संयतासंयत, असंयत, शुक्लके सिवा शेष पाँचों लेश्यावाले, अभव्य, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकोंमें जानना चाहिये । विशेषार्थ-उक्त सब मार्गणाओंमें मोहनीयकर्मका एक स्थानिक अनुभाग नहीं रहता है १. ता. प्रतौ पाहारि त्ति इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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