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________________ गा० २३ ] अणुभागविहत्तीए सण्णा अणियोगदाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा-सण्णा सव्वाणुभागविहत्ती णोसव्वाणुभागविहली उक्कस्साणुभागविहत्ती अणुक्कस्साणुभागविहत्ती जहण्णाणुभागविहली अजहण्णाणुभागविहत्ती सादियअणुभागविहत्ती अणादियअणुभागविहत्ती धुवाणुभागविहत्ती अधुवाणुभागविहत्ती एग जीवेण सामित्वं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचनो भागभागो परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भावो अप्पाबहुअं चेदि । सणियासों णत्थि; एकिस्से पयडीए तदसंभवादो । भुजगार-पदणिक्खेव-वडिविहत्ति-हाणाणि चेदि अण्णे चत्तारि अत्थाहियारा होति । ३. तत्थ एदेहि कमेण मूलपयडिअणुभागविहत्तीए परूवणं कस्सामो । तं जहा-सण्णा दुविहा-घादिसण्णा हाणसण्णा चेदि। घादिसण्णा दुविहा-जहण्णा उक्कस्सा चेदि । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्सअणुभागविहत्ती सव्वघादी। सव्वघादि ति किं ? सगपडिबद्धं जीवगुणं सव्वं णिरवसेसं घाइउं विणासिद्ध सीलं जस्स अणुभागस्स सो अणुभागो सव्वघादी'। अणुक्कस्सअणुभागविहत्ती सव्वघादी देवघादी वा । एवं मणुसतिण्णितेईस अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं-संज्ञा, सर्वानुभागविभक्ति, नोसर्वानुभागविभक्ति, उत्कृष्टानुभागविभक्ति, अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति, जघन्य अनुभागविभक्ति, अजघन्य अनुभागविभक्ति, सादिअनुभागविभक्ति, अनादिअनुभागविभक्ति, ध्रुवअनुभागविभाक्ति, अध्रुवअनुभागविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । यहाँ सन्निकर्ष अनुयोगद्वार नहीं है, क्योंकि एक प्रकृतिमें सन्निकर्ष संभव नहीं है। यहाँ भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धिविभक्ति और स्थान ये चार अधिकार और होते हैं। ६३. अब इनके द्वारा क्रमसे मूलप्रकृतिअनुभागविभक्तिका कथन करेंगे। वह इस प्रकार है-संज्ञा दो प्रकारकी है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा। घातिसंज्ञा दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे पहले उत्कृष्ट घातिसंज्ञाका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-आंघ निर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग विभक्ति सर्वघाती है। शंका-सर्वघाति इस पदका क्या अर्थ है ? समाधान-अपने से प्रतिबद्ध जीवके गुणको पूरी तरह से घातनेका जिस अनुभागका स्वभाव है उस अनुभागको सर्वघाती कहते हैं। मोहनीय कर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती भी है और देशघाती भी है। इसी १. जो पाएह सविसयं सयलं सो होइ सम्वघाइरसो । सो निच्छिहो निद्धो तणुप्रो फलिहब्भहरविमलो ॥ १५८॥ श्वेताम्बर पंचसंग्रहद्वार ३ व्याख्या-'यो घातयति स्वविषयं संकलं स भवति सर्वघातिरसः । सर्व स्वघात्यं केवलज्ञानादिलक्षणं गुणं घातयतीति सर्वघातीति । कर्मप्रकृतिग्रन्थ संक्रमकरणे गाथा टीका ४४ स्वविषयं कास्न्येन धनन्ति यास्ताः सर्वधातिन्यः । कर्मप्रकृतिग्रन्थ टीका १०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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