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________________ . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ * एत्तो अणुभागविहत्ती दुविहा-मूलपयडिअणुभागविहत्ती चेव उत्तरपयडिअणुभागविहत्ती चेव । १. को अणुभागो ? कम्माणं सगकज्जफरणसत्ती अणुभागो णाम । तस्से विहत्ती भेदो पवंचो जम्हि अहियारे परूविज्जदि सा अणुभागविहत्ती णाम । तिस्से दुवे अहियारा-मूलपयडिअणुभागविहत्ती उत्तरपयडिअणुभागविहत्ती चेदि । मूलपयडिअणुभागस्स जत्थ विहत्ती परूविजदि सा मूलपय डिअणुभागविहत्ती । उत्तरपयडीणमणुभागस्स जत्थ विहत्ती परूविज्जदि सा उत्तरपयडिअणुभागविहत्ती। एवमेत्थ वे चेव अत्थाहियारा; तदियस्स णिव्विसयत्तेण अभावादो। ण दोण्हमहियाराणं समूहो विसओ; समूहिवदिरित्तसमूहाभावादो तेहिंतो चेव तदवगमादो वा । * एत्तो मूलपयडिअणुभागविहत्ती भाणिदव्वा । $ २. एदम्हादो णिबंधणादो मूलपयडिअणुभागविहत्ती भाणिदूर्ण गेहदव्वा । संपहि एदस्स सुत्तस्स उच्चारणाइरियकयवक्खाणं वत्तइस्सामो। तत्थ इमाणि तेवीसं * यहाँ से अनुभागविभक्ति का कथन प्रारम्भ होता है। उसके दो भेद हैंमूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति और उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति । ६१. शा-अनुभाग किसे कहते हैं ? समाधान-कर्मों के अपना कार्य करनेकी शक्तिको अनुभाग कहते हैं, अर्थात् कर्मों में अपना अपना फल देनेकी जो शक्ति रहती है उसे ही अनुभाग कहा जाता है । उस अनुभागकी विभक्ति अर्थात् भेद या विस्तार जिस अधिकारमें कहा जाता है उसका नाम अनुभागविभक्ति है। उसके दो अधिकार हैं-मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति और उत्तरप्रकृति अनुभागविभक्ति । जिस अधिकारमें मूल प्रकृतियोंके अनुभागका विभाग कहा जाता है वह मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति है और जिसमें उत्तर प्रकृतियोंके अनुभागके विस्तारको कहा जाता है वह उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति है। इस प्रकार यहाँ दो ही अधिकार हैं। तीसरे अधिकारका अभाव है; क्योंकि उसका कोई विषय नहीं है। शायद कहा जाय कि दोनों अधिकारोंका समूह उसका विषय है अर्थात् तीसरे अधिकारमें मूल प्रकृतिअनुभागविभक्ति और उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति का कथन रह सकता है सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि समूहवालोंसे अतिरिक्त समूहका अभाव है और समूहवालोंका ज्ञान हो जानेसे ही उनके समूहका भी ज्ञान हो जाता है । सारांश यह है कि जब पहले अधिकारमें मूलप्रकृतिअनुभागविभक्तिका और दूसरे में उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्तिका कथन हो ही चुकता है तो उनका ज्ञान हो जाने से उनके समूहका भी ज्ञान हो ही जाता है, क्योंकि दोनों विभक्तियोंका समूह उनसे कोई पृथक् वस्तु नहीं है, अतः तीसरे अधिकार में कथन करनेके लिये कोई विषय ही नहीं है इसलिये यहाँ तीसरे अधिकारका अभाव है। * यहाँसे मूलप्रकृतिअनुभागविभक्तिका कथन कराना चाहिये । २. इस सूत्रसे मूलप्रकृतिअनुभागविभक्तिका कथन कराके उसे ग्रहण करना चाहिये । अब इस सूत्रके उच्चारणाचार्यकृत व्याख्यानको कहेंगे। मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति के विषयमें ये १. भा० प्रतौ अणुभागो । तस्स इति पाठः । २. ता. प्रती भणि दूण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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