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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ७. आदेसेण रइएसु जहण्ण. अजहण्ण० सव्वघादी। एवं सव्वणेरइयसव्वतिरिक्व-मणुसअपज्ज०--सव्वदेव--सव्वएइंदिय--सव्वविगलिंदिय--पंचेंदियअपजं. सव्वपंचकाय०--तसअपज्ज.--ओरालियमिस्स०-वेउव्विय०-वेउब्वियमिस्स०-कम्मइय०आहार०-आहारमिस्स०-तिण्णिवेद०-अकसा०-तिण्णिअण्णा०--परिहार०-जहाक्खाद०संजमासंजम--असंजम---पंचले०--अभवसि०--वेदग०--उवसम०--सासण-सम्मामि - मिच्छादि०--असण्णि०-अणाहारि ति।।
. एवं जहण्णसण्णाणुगमो समत्तो। ८. टाणसण्णा दुविहा—जहण्णिया उक्कस्सिया चेदि । उक्कस्सियाए पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागहाणं चदुहाणियं । अणुक्क० चदुहाणियं तिहाणियं विहाणियं एगहाणियं वा । एवं मणुसतिण्णिपंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण०--पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालियकाय०
७. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्ति सर्वघाती है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्यअपर्याप्त, सब देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पृथ्वीकायिक, सब जलकायिक, सब तेजस्कायिक, सब वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक, त्रसअपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, तीनों वेदवाले, अकषायिक, कुमतिज्ञानी, कुश्रुतज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयमी, यथाख्यातचारित्रसंयमी, संयमासंयमी, असंयमी, शुक्ललेश्याके सिवा शेष पांचों लेश्यावाले, अभव्य, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यामिथ्यादृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकमें समझना चाहिये ।
विशेषार्थ-मूलमें कही गई आहारक पर्यन्त मार्गणाओं में क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा एक स्थानिक अनुभाग का भी सत्त्व पाया जाता है। अतः उनमें जघन्य अनुभाग देशघाती और घन्य अ
अनुभाग देशघाती तथा सर्वघाती होता है। तथा शेष अनाहारक पर्यन्त मार्गणाओं में सर्वघाती अनुभागका ही सत्त्व पाया जाता है अतः उनमें जघन्य और अजघन्य दोनों अनुभाग सर्वघाती ही होते हैं। यहां यह स्मरण रखनेकी बात है कि अनुभागके ये उत्कृष्ट आदि भेद ओघ
और आदेश दो प्रकारसे किये हैं। इसलिए जहाँ जो सम्भव हों उस अपेक्षा से उन्हें घटित कर लेना चाहिए।
इस प्रकार जघन्य संज्ञानुगम समाप्त हुआ। ६८. स्थानसंज्ञा दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे यहां उत्कृष्ट का प्रकरण है। निर्देश दो प्रकार का है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीय कमका उत्कृष्ट अनुभागस्थान चतुःस्थानिक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान चतु:स्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक होता है। इसी प्रकार तीनों प्रकारके मनुष्य, पञ्चन्द्रिय, पञ्च न्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाय
१. श्रा. प्रतौ सन्धविगलिंदिय अपज० इति पाठः। २. ता० प्रतौ श्रोरालियमिस्स० वेउब्धिय मिस्स. इति पाठः।
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