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________________ गा०२२] अणुभागविहत्तीए वड्डीए अंतरं ३२७ मवत्त० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ताणि सादिरेयाणि । सम्म०-सम्मामिच्छत्ताणमणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा। __$५६३. आदेसेण णेरइएसु छब्बीसं पयडीणं पंचवडि-पंचहाणी० जह० एगस०, उक्क० असंखे० लोगा । अणंतगुणवडि-अवहि० णत्थि अंतरं । अणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त० अणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं । सम्म०-सम्मामि० अवहि. छणहमवत्त० ओघं । एवं पढमपुढवि०-पंचिंदियतिरिक्खपंचिंतिरि०पज्ज०--देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमपुढवि०--पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी--भवण०-वाण०--जोइसिए त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अणंतगुणहाणी णत्थि । ५६४. तिरिक्ख० छब्बीसंपयडीणमोघं । सम्म०-सम्मामि० रइयभंगो । पंचिं०तिरि०अपज्ज० अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० णेरइयभंगो । तिएहं मणुस्साणं पि णेरइयभंगो । णवरि सम्म०-सम्मामि० ओघं । मणुस्सिणीसु सम्म०-सम्मामिच्छताणं अणंतगुणहाणि० उक्क. वासपुधत्तं । मणुसअपज्ज० छब्बीसंपयडीणं पंचवडि०पंचहाणि० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणंतगुणवडि-हाणि-अवहि० सम्म०सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर नहीं है। छह प्रकृतियोंकी अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक चौबीस रात दिन है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह मास है। ६५६३. श्रादेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी पाँचों वृद्धियों और पाँचों हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका अन्तर नहीं है । अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका तथा छह प्रकृतियोंकी श्रवक्तव्यविभक्तिका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानि नहीं होती। ५६४. सामान्य तिर्यञ्चोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग नारकियोंके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब पद विभक्तियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। तीन प्रकारके मनुष्योंमें भी नारकियोंके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यनियों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर वषपृथक्त्व है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी पाँच वृद्धियों और पाँच हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि, अनन्तगुणहानि और अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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