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________________ २१६ arvarvvvvvvvvvvvv जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ विवक्खाए, ण पुण एत्थ, पहाणीकयविसेसणचादो, तम्हा ण पुणरुत्तदोसो ति सदहेयव्वं । * सिया अविहत्तिया च विहत्तिमो च । ३३२. कम्हि वि काले मिच्छत्तउक्कस्साणु० अविहतिगेहि सह एकस्सउक्कस्साणुभागविहत्तियजीवस्स संभवो होदि, णिम्मूलाभावे उवलंभमाणे एकस्स उक्कस्साणुभागविहत्तियजीवस्स संभवं पडि विरोहाभावादो। * सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च । ३३३. कम्हि वि काले उक्कस्सागभागस्स अविहत्तिएहि सह उक्कस्साणभागविहत्तियजीवाणं संभवो होदि, विरोहाभावादो । * अणुक्कस्सअणुभागस्स सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । __$ ३३४. पुव्वमुत्तादो मिच्छत्तस्से त्ति अणुवट्टदे। अणुक्कस्सअणुभागस्से ति जिद्द सो उक्कस्साणुभागपडिसेहफलो । कम्हि वि काले मिच्छत्तस्स अणुक्कस्साणुभागस्स सव्वे जीवा विहचिया चेव होंति, उक्कस्साणुभागसंतकम्मियाणं जीवाणं सांतरभावेण पउत्तिदंसणादो। .. सिया विहत्तिया च अविहत्तिमो च। शंका-दोनों जगह विशेष्य तो एक ही है अत: पुनरुक्त दोष क्यों नहीं आता ? समाधान-उस प्रकारकी विवक्षाके होने पर पुनरुक्त दोष होओ, किन्तु यहाँ वह नहीं है, क्योंकि यहाँ विशेषण ही प्रधान हैं, अतः पुनरुक्त दोष नहीं है ऐसा श्रद्धान करना चाहिये। * कदाचित् नाना जीव अविभक्तिवाले हैं और एक जीव विभक्तिवाला है। ३३२. किसी भी समय मिथ्यात्व की उत्कृष्ट अनुभाग अविभक्तिवाले जीवोंके साथ एक उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला जीव संभव है, क्योंकि जब कदाचित् उत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवाले जीवोंका कतई अभाव पाया जाता है तो एक उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवके रहनेमें कोई विरोध नहीं है। अर्थात् उनके निमूल अभावमें भी कमसे कम एक जीव उत्कृष्ट अनुभागवाला रह सकता है। * कदाचित् बहुत जीव उत्कृष्ट अनुभाग अविभक्तिवाले हैं और बहत जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हैं। ३३३. किसी भी समय उत्कृष्ट अनुभाग अविभक्तिवाले जीवो के साथ उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव होते हैं इसमें कोई विरोध नहीं है। * कदाचित् सव जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हैं। ६३३४. पहलेके सूत्रसे मिथ्यात्व पद की अनुवृत्ति होती है। उत्कृष्ट अनुभागका निषेध करनेके लिए अनुत्कृष्टअनुभागका निर्देश किया है। किसी भी समय सब जीव मिथ्यात्व अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले ही होते हैं, क्योकि उत्कृष्ट अनुभाग की सत्तावाले जीवों की प्रवृत्ति सान्तर रूपसे देखी जाती है। * कदाचित् बहुत जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हैं और एक जीव अनुत्कृष्ट अनुभागअविभक्तिवाला है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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