SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ संखे०भागो । अवहि० संखेज्जा भागा । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । ___ एवं भागाभागाणुगमो समत्तो। $ १५३. परिमाणाणुगमेण दुविहो णि सो—ोघेण आदेसेण । ओघेण मोह. भुज०-अप्पदर०-अवहि० दव्वपमाणेण केवडिया ? अणंता । एवं तिरिक्खोघम्मि । $ १५४. आदेसेण रइएमु सव्वपदवि० असंखेज्जा । एवं सव्वणेरइय--सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्स-मणुसअपज्ज०-देव०--भवणादि जाव अवराइदं ति । मणुसपज्जत्त-मणुस्सिणि-सव्वदृसिद्धिदेवेसु सव्वपदवि० संखेज्जा । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । एवं परिमाणाणुगमो समत्तो। जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवों के संख्यात बहुभाग हैं। इस प्रकार भागाभागानुगमको जानकर अनाहारकमार्गणा पर्यन्त ले जाना जाहिये। विशेषार्थ ओघसे भुजगारविभक्तिवाले सब जीवोंके संख्यातवें भाग होते हैं, अल्पतरविभक्तिवाले असंख्यातवें भाग होते हैं और अवस्थितविभिक्तिवाले संख्यात बहुभाग होते हैं। इसका कारण यह है कि अवस्थितविभक्तिका काल बहुत अधिक है। तथा भुजगारविभक्ति और अल्पतरविभक्तिका काल यद्यपि ओघसे समान है फिर भी अल्पतरविभक्तिका अन्तर्मुहूर्त काल केवल क्रियाविशेषके समय ही होता है। अत: काल समान होने पर भी अल्पतरविभक्तिवाले कम हैं और भुजगारविभक्तिवाले अधिक हैं। जिन मार्गणाओंमें जीवराशि असंख्यात या अनन्त है उनमें इसी प्रकार भागाभाग जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंका प्रमाण संख्यात है, अत: उनमें संख्यातेकभाग तो भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले होते हैं और संख्यात बहुभाग अवस्थितविभक्तिवाले होते हैं। प्रानतसे लेकर अपराजित विमान पर्यन्त प्रत्येकमें जीवराशि यद्यपि असंख्यात है, किन्तु उनमें भुजगारविभक्ति नहीं होती, अत: असंख्यातेकभागप्रमाण जीव अल्पतरविभक्तिवाले होते हैं और असंख्यात बहुभागप्रमाण जीव अवस्थितविभक्तिवाले होते हैं। सर्वार्थसिद्धिके देवोंका प्रमाण संख्यात है, अत: उनमें संख्यातेक भाग जीव अल्पतरवाले और संख्यात बहुभाग अवस्थितवाले होते हैं । इस प्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ। ६१५३, परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले द्रव्यप्रमाणसे अर्थात् गणनाकी अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। १५४. श्रादेशसे नारकियोंमें सब विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासीसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्यपर्याप्त, मनुयिनी और साथसिद्धिके देवोंमें सब विभक्तिवाले संख्यात हैं। इस प्रकार परिमाणानुगमको जानकर उसे अनाहारक मार्गणापयन्त ले जाना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy