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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए वड्डीए कालो अवहि० ज० एगस०, उक्क० तिण्णिपलिदो० सादिरेयाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खचउक्कस्स ? णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमुहु । मणुसतिएसु ओघभंगो । णवरि अवहि० ज० एगस०, उक्क० तिण्णिपलिदो० पुव्वकोडितिभागेण सादिरेयाणि । मणुस्सिणीसु अंतोमुहत्तेण सादिरेयाणि । मणुसअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो। देव. भवणादि जाव सहस्सारो त्ति णेरइयभंगो। णवरि अवहि. सगसगुक्कस्सहिदी। भवण-वाण०-जोदिसि० देसूणा । आणदादि जाव सव्वहसिदि त्ति अणंतगुणहाणी जहण्णुक० एगस० । अवहि० ज० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सगसगुक्कस्सदिही । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । ___ एवं कालाणुगमो समतो। APNA इतनी विशेषता है कि अवस्थानका जघन्य काल एक समय है और उत्कष्ट काल कुछ अधिक तीन पल्य है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी और पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चअपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चअपर्याप्तकोंमें अवस्थितिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें ओघके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अवस्थितिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है। तथा मनुष्यिनियोंमें अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। मनुष्यअपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भंग है। सामान्य देव व भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अवस्थानका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। किन्तु भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमे अवस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अनन्तगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इसप्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थ-ओघसे एक जीवके पाँचों वृद्धियाँ कमसे कम एक समय तक होती हैं और .. अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भाग कालतक होती हैं। तथा अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त तक होती हैं। शेष पाँच हानियाँ एक समय तक ही होती हैं । अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक सौ त्रेसठ सागर और पल्यका असंख्यातवाँ भाग है। इसके सम्बन्धमे भुजगार विभक्तिमें एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन करते हुए लिख आये हैं। आदेशसे भी चारों गतियोंमें छहों वृद्धियों और छहों हानियोंका काल अोधके समान है। किन्तु नरकगति, तिर्यञ्चगति और देवगतिमें अनन्तगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योंकि अन्तमुहूर्त काल तक अनन्तगुणहानि केवल चारित्रमोहकी क्षपणामे ही संभव है और उसका इन गतियोंमे अभाव है। अवस्थानका जघन्य काल तो आनतादिकके सिवा सर्वत्र एक ही समय है, केवल उत्कृष्ट काल पृथक पृथक है और उसका स्पष्टीकरण भुजगारविभक्तिके कालानुगममें कर दिया गया है । इस प्रकार मूलमें कही गई विशेषताको ध्यानमें रखकर चारों गतियोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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