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________________ ११४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ दूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । एवं सामित्ताणुगमो समत्तो । ६ १७२. कालाणु० दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० पंचवड्डी. केवचिरं कालादो होति ? जह० एगसमओ, उक्क० श्रावलि० असंखे०भागो। अणंतगुणवडि-हाणिओ केव० ? ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । पंचहाणिकालो जहण्णुकस्सेण एगसमओ। अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयं । ६ १७३. आदेसेण गेरइएमु मोह० पंचवड्डी केवचिरं कालादो होति ? ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। अणंतगुणवडी ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। छहाणी० जहण्णुक्क० एगस० । अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सव्वणेरइयाणं । णवरि सगहिदी देसूणा । एवं तिरिक्खेसु । णवरि किसी भी सम्यग्दृष्टिके होते हैं। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए। . विशेषार्थ-ओघसे मोहनीयके अनुभागसत्कर्ममें छहों वृद्धियाँ और पाँचों हानियाँ मिथ्यादृष्टि जीवके होती हैं किन्तु अनन्तगुणहानि और अवस्थान सम्यग्दृष्टिके भी होते हैं और मिथ्यादृष्टिके भी होते हैं। आदेशसे चारों गतियोंमें भी यही व्यवस्था है। किन्तु पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त कि मिथ्या दृष्टि ही होते हैं, अत: उनमे मिथ्यादृष्टिक ही सब वृद्धियाँ, सब हानियाँ और अवस्थान होते हैं । तथा आनतादिकमे अनन्तगुणहानि और अवस्थान ही होते हैं और आनतसे लेकर नववेयक पर्यन्त मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, अतः अनन्तगुणहानि और अवस्थान दोनोंके ही होते हैं। किन्तु अनुदिशादिकमे' सव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, अत: अनन्तगुणहानि और अवस्थान सम्यग्दृष्टिके ही होते हैं। इसप्रकार स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। १७२. कालानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और श्रादेश। ओघसे एक जीवकं मोहनीयकी पाँचों वृद्धियांका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पाँच हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। । १७३. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी पाँचों वृद्धियोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। छह हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थानका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमे जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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