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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए भुजगारकालो __१५८. आदेसेण णेरइएसु भुज०-अवहि० सव्वद्धा । अप्पदर० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख--मणुस्सदेव०-भवणादि जाव सहस्सारा ति । णवरि मणुस्सेसु अप्पदर० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसपज्ज०-मणुसिणी० । मणुसअपज्ज० मोह. भुज०-अवहि. ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे भागो। अप्पदर० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। आणदादि जाव अवराइद ति अप्पदर०-अवहि० णेरइयभंगो। सव्वहे अप्पदर० ज० एगस०, उक० संखेज्जा समया । अवहि. सव्वद्धा । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । एवं णाणाजीवेहि कालाणुगमो समत्तो। ६ १५८. आदेशसे नारकियोंमें भुजगार और अवस्थितविभक्तिका काल सर्वदा है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल वलीके असंख्यातवें भाग है । इसीप्रकार सत्र नारकी, सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्योंमें अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असख्यातवें भाग है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग है। आनत स्वर्गसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका भंग नारकियोंके समान है। सर्वार्थसिद्धिमें अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अवस्थितविभक्तिका काल सर्वदा है। इसप्रकार कालानुगमको जानकर उसे अनाहारक मार्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थ-आदेशसे सभी गतियोंमें भुजगार और अवस्थितविभक्तिवाले जीव तो सर्वदा पाये जाते हैं, केवल मनुष्य अपर्याप्तकोंमें इन दोनों विभक्तिवाले नाना जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग है. क्योंकि यह सान्तर मार्गणा है और इसका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। परन्तु अल्पतरविभक्तिवाले नाना जीवोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे आवलिका असंख्यातवाँ भाग होता है। अर्थात् किसी भी गतिमें अल्पतरविभक्तिवाले जीव कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भाग काल तक ही पाये जा सकते हैं उसके पश्चात् कुछ काल ऐसा आजाता है जिसमें एक भी अल्पतरविभक्तिवाला जीव नहीं होता। मात्र आनतसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें भुजगारविभक्ति नहीं होती। शेष दो होती हैं, इसलिए उनमें भुजगारके सिवा शेष दोका काल कहा है । तथा सर्वार्थसिद्धिमें अल्पतरविभक्तिवालोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें अल्पतर विभक्तवाले भी सर्वदा पाये जाते हैं, इसलिए इनमें तीनांका काल सर्वदा कहा हैं और इसी अपेक्षासे ओघकी अपेक्षा भी तीनोंका काल सर्वदा कहा है। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा कालानुगम समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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