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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए सण्णियासो अणंतगुणन्भहिया । अणंताणु० चउक्क० णियमा अज अणंतगुणब्भहिया। बारसक०-णवणोक० किं ज० अज०१ तं तु छहाणपदिदा । एवं बारसक०-णवणोकसायाणं । सम्मत्त. जहण्णाणु० बारसक० णवणोक० किं ज० अज. ? णियमा अज. अणंतगुणब्भहिया । अणंताणु०कोध० जहण्णाणु० मिच्छत्त-सम्मत्त-बारसक०-णवणोक० किं ज० अज०१ णि. अज० अणंतगुणब्भहिया। तिण्णिकसाय० किं ज० किमज०१ तं तु छहाणपदिदा। एवं सेसतिण्हमणंताणुबंधीणं । एवं जोणिणी० । णवरि सम्मत्त० जहण्णं णत्थि । पंचितिरि० अपज्ज० मिच्छत० जहण्णाणु० सोलसक०--णवणोक०--णियमा तंतु छहाणपदिदा । एवं सोलसक०-णवगोक० । मणुसअपज्जताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जचभंगो। ४२६. मणुस्साणमोघं । मणुसपज्ज० एवं चेव । णवरि इत्थिवेद-जहण्णाणुभागविहत्तियस्स णवूस० सिया अस्थि सिया पत्थि । जदि अत्थि णियमा अज. अणंतगुणन्भहिया । मणुसिणीणमोघं । णवरि णqस. जहण्णाणु० इत्थि० णि. अज. अणंतगुणभहिया । पुरिस० छण्णोकसायभंगो। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका नियमसे अनन्तगुणा अधिक अजघन्य अनुभाग होता है। बारह कषाय और नव नोकषायका क्या जघन्य होता है या अजघन्य? वह जघन्य होता है और अजघन्य भी। यदि अजघन्य होता है तो वह षट्स्थान पतित होता है। इसी प्रकार बारह कषाय और नव नोकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके बारह कषाय और नव नोकषायोंका क्या जघन्य होता है या अजघन्य ? नियमसे अनन्तगुणा अधिक अजघन्य अनुभाग होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारहकषाय और नव नोकषायोंका क्या जघन्य होता है या अजघन्य ? नियमसे अनन्तगुणा अधिक अजघन्य अनुभाग होता है। अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभका क्या जघन्य होता है या अजघन्य ? वह जघन्य होता है और अजघन्य भी। यदि अजघ य होता है तो वह षट् स्थान पतित होता है। इसी प्रकार शेष तीन अनन्तानुबन्धिकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्वका जघन्य नहीं होता। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके सोलह कषाय और नव नोकषायोंका अनुभागसत्कर्म नियमसे होता है किन्तु वह जघन्य भी होता है और अजघन्य भी। यदि अजघन्य होता है तो वह षट्स्थान पतित होता है। इसी प्रकार सोलह कषाय और नव नोकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भंग है। ६ ४२६. सामान्य मनुष्योंमें ओघवत् जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्तकोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि स्त्रीवेदकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवालेके नपुंसकवेद कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता। यदि होता है तो नियमसे अनन्तगुण अधिक अनुभागको लिए हुए अजघन्य होता है। मनुष्यनियोंमें ओघवत् जानना चाहिए । इतना विशेष है कि नपुंसकवेदकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवाले के स्त्रीवेदका नियमसे अनन्तगुणे अधिक अनुभागको लिए हुए अजघन्य होता है तथा पुरुषवेदका भङ्ग छ नोकषायके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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