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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ सगसगुक्कस्सहिदी वत्तव्वा । पंचि०तिरिक्ख-पंचि०तिरि०पज्ज-पंचि०तिरि०जोगिणीसु अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । एवं मणुसतियस्स वत्तव्वं । पंचिंदियतिरिक्वअपज्ज० अणुक्क० ज० उक्क० अंतोमु०। एवं मणुसअपज्ज०-पंचिंदियअपज्ज०--सव्वविगलिंदियअपज्जा--तसअपज्जत्ताणं । देवभवणादि जाव सहस्सार त्ति अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० अप्पप्पणो उक्कस्सहिदी। आणदादि जाव सव्वसिदि ति उक्कस्स-अणुक्कस्सअणुभागाणं जहण्णेण अंतोमु०, उक्क. सगसगुक्कस्सहिदी। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये। अर्थात् पहले नरकमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट काल एक सागर है, दूसरेमें तीन सागर है. तीसरेमें सात सागर है, चौथेमें दस सागर है, पाँचवेंमें सत्रह सागर है, छठेमें बाईस सागर है और सातवमें तेतीस सागर है। पञ्चन्द्रियतियश्च, पञ्चन्द्रियतिर्यश्च पर्याप्तक और पञ्चन्द्रियतिर्यश्चयोनिनी जीवोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य प्रमाण है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्तक और मनुष्यनीके कहना चाहिये । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकके अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पश्चन्द्रिय अपर्याप्त सब विकलेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रसअपर्याप्तकोंके जानना चाहिये। सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्त्रार स्वर्गपर्यन्तके देवोंके अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-जिन पर्यायोंमें मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो सकता है, उनमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय बन जाता है। किन्तु यदि उन पर्यायोंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध न हुआ हो और पिछले भवसे भी उत्कष्ट अनुभागको न लाया गया हो तो जीवनभर अनुत्कृष्ट अनुभागकी ही सत्ता रह सकती है। इसीसे नरकगतिमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहा है । पञ्चन्द्रिय तियंञ्च आदिमें तथा तीन प्रकारके मनुष्योंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो सकता है अतः उनमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तथा इन मार्गणाओंकी कायस्थिति तीन पल्य अधिक पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है, अतः इन मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट अनुभाग का उत्कृष्ट काल भी इतना ही कहा है । पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्काप्तक आदिमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नहीं होता है, तथा एक जीवकी अपेक्षा इन मार्गणाओंका काल भी अन्तमुहर्त ही है, अतः इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त ही कहा है। भवनवासीसे लेकर सहस्त्रार स्वर्ग पर्यन्तके देवोंमें भी यदि उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हुआ तो अनुत्कृष्ट अनुभागका काल एक समय अन्यथा अपनी अपनी स्थिति प्रमाण होता है। आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें उत्कृष्ट अनुभागका घात न होने पर वह जीवन भर रह सकता है और घात होने पर उसका अन्तमुहूर्त काल उपलब्ध होता है। तथा जीवनके अन्तमें अन्तमुहूर्त काल शेष रहने पर उत्कृष्ट अनुभागका घात होने पर अन्तिम अन्तमुहूर्तमें अनुत्कृष्ट अनुभाग पाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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