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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए कालो ३०. आदेसेण णेरइएमु मोह० उक्कस्साणुभाग० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख०--सव्वमणुस०-देव० -भवणादि जाव सहस्सार० सव्वबादरेइंदिय-सव्वमुहमेइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज.. सव्वचत्तारिकाय०--सव्वबादरमुहुमवणप्फदि-सव्वणिगोद--तसअपज्ज०---पंचमण०-- पंचवचि०-ओरालिय०--ओरालियमिस्स०-वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स०-इत्थि०-पुरिस०चत्तारिकसाय-विभंगणाण-किण्ह-णील-काउलेस्सिया ति ।। ३१. संपहि जहाकममेदेसिमणुक्कस्सकालाणुगमं कस्सामो। तं जहा–णेरड्य. अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं सव्वणेरइयाणं । णवरि भागविभक्तिका भी जघन्य काल एक समय बनता है। एकेन्द्रिय, वनस्पति और असंज्ञीमें भी उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल इसी प्रकार एक समय होता है, किन्तु इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय नहीं है, क्योंकि इनमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नहीं होता है। ६३०. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, सब मनुष्य,सामान्य देव,भवनवासीसे लेकर सहस्रार पर्यन्त तकके देव, सन बादर एकेन्दिय,सब सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चन्द्रिय अपर्याप्त, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब तेजकायिक, सब वायुकायिक, सब बादर सूक्ष्म वनस्पति, सब निगोदिया, त्रस अपर्याप्तक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लाभी, विभंगज्ञानी, कृष्णलेश्यावाले, नील लेश्यावाले और कापोतलेश्यावालोंमें जानना चाहिये। विशेषार्थ कोई मनुष्य या संज्ञी पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च मिथ्यादृष्टि उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके और उत्कृष्ट अनुभागके कालमें एक समय शेष रहने पर यदि नारक आदिमें जन्म लेता है तो उनमें उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। इसी प्रकार सपर्याप्तक तक जानना। मनोयोग, वचनयोग या औदारिककाययोगमें स्थित कोई जीव अपने अपने योगका काल एक समय शेष रहने पर उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके दूसरे समयमें अन्य योगवाला हो गया तो उसके उस उस योगमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिकाजघन्य काल एक समय पाया जाता है। या उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला कोई जीव मनोयोगसे वचनयोग या औदारिककाययोगमें या वचनयोगसे किसी दूसरे योगमें आ जाता है और वहाँ एक समय बाद उत्कृष्ट अनुभागका परिघात कर देता है तो उस उस योगमें उत्कृष्ट अनुभागका काल एक समय बन जाता है। इसी प्रकार कोई मनुष्य या संज्ञी पञ्चन्द्रियपर्याप्त तियश्च उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके मरकर औदारिकमिश्रकाययोगी या वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हुआ और एक समय तक उस योगमें उत्कृष्ट अनुभागके साथ रहकर दूसरे समय उत्कृष्ट अनुभागका घात कर दिया तो उन योगोंमें उत्कृष्ट अनुभागका काल एक समय बन जाता है। शेष 'विवक्षित मार्गणाओंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय बन जाता है। इन सब मार्गणाओंमें उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है यह स्पष्ट ही है। ६३१. अब क्रमानुसार इनके अनुत्कृष्ट कालका अनुगम करते हैं, जो इस प्रकार हैनारकियोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रत्येक नरकमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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