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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुश्रं २६१ ६४३७. कुदो ? कोधबादरकिट्टिणवकबंधाणुभागं पेक्खिदूण सम्मत्तजहण्णाणुभागस्स फद्दयगदस्स अणंतगुणत्तं पडि विरोहाभावादो। अणंतगुणहीणकमेण अंतोमुहुत्तकालमणुसमयमोवट्टणाए पत्तघादो सम्मत्ताणुभागो सगजहण्णफयादो किट्टीणमणुभागो व्व हेटा णिवददि दारुसमाणस्सणंतिमभागे लदासमाणफद्दएमु च छहाणाणमभावादो। ण च छहाणेहि विणा अणंतगुणहाणीए घादिज्जमाणाणुभागो फद्दयभावं पडिवजदि, विरोहादो त्ति ? ण एस दोसो, तत्थ वि अणेयाणं छहाणाणं संभवादो। सम्मत्तस्स बंधाभावे कथं तत्थ छहाणाणं संभवो ? ण, मिच्छत्तकम्मक्खंधारणं विसोहिवसेण घादं पाविदण अणंतगुणहीणाणुभागेण परिणमिय सम्मत्तकम्मभावमुवणमणकाले चेव तेण सरूवेण अवहाणादो। किंच ण देसघादिफहयाणुभागो अणुसमयओवट्टणाए घादिजमाणो सगजहएणफद्दयादो हेटा णिवददि, चारित्तमोहक्ववणाए चदुसंजलगपच्चग्गबंधोदयाणमणुसमयओवट्टणाए घादिज्जमाणाणं पि किट्टित्तपसंगादो। ण च एवं तहाणुवलंभादो । * पुरिसवेदस्स जहणणाणुभागो अणंतगुणो। $ ४३८. खवगसेढीए अपुवकरणपढमसमयप्पहुडि अणंतगुणहीणकमेण ६४३७. क्यों कि क्रोधकी बादर कृष्टि के अन्तमें होनेवाले नरकबन्धके अनभागकी अपेक्षा सम्यक्त्वके जघन्य स्पर्धकमें पाया जानेवाला अनुभाग अनन्तगुणा है. इसमें कोई विरोध नहीं है। शंका-जैसे प्रतिसमय अनन्तगुणे हीन क्रमसे होनेवाले अपवर्तन घातके द्वारा कृष्टियोंका अनुभाग उत्तरोत्तर हीन होकर नीचे गिरता है वैसेही अन्तर्मुहूर्त कालतक अनन्तगुणे हीन क्रमसे प्रति समय अपवर्तनाके द्वारा घातको प्राप्त होने पर सम्यक्त्वका अनुभाग अपने जघन्य स्पर्धकसे नीचे गिर जाता है अर्थात् उससे भी कम हो जाता है दारु समानके अनन्तवें भागमें तथा लता समान स्पर्धकोंमें षट्स्थान नहीं होते है और षट्स्थानोंके बिना अनन्तगुण हानिके द्वारा घाता हुआ अनुभाग स्पर्धक अपनेको नहीं प्राप्त हो सकता, क्योंकि ऐसा होने में विरोध है। समाधान-यह दोष ठीक नहीं है क्योंकि सम्यक्त्वके अनुभागमें भी अनेक षट्स्थानों का होना संभव है शंका-जब सम्यक्त्व प्रकृतिका बन्ध ही नहीं होता तो उसमें षट्स्थान कैसे हो सकते हैं। समाधान-नहीं मिथ्यात्वके कर्मस्कन्ध विशुद्ध परिणामोंके वशसे घाते जाकर अनन्तगणे हीन अनुभागरूपसे परिणमन करके जिस समय सम्यक्त्वकर्मपनेको प्राप्त होते हैं उसी समय वे षट्स्थानरूपसे अवस्थित रहते हैं। दूसरे, देशघातीस्पर्धकोंका अनुभाग प्रति समय अपवर्तनाके द्वारा घाता जाकर अपने जघन्य स्पर्धकसे नीचे नहीं जाता। यदि ऐसा हो तो चारित्रमोहकी क्षपणामें चारो संज्वलकषायोंके नवक बन्ध और उदयके भी प्रतिसमय अपवर्तनाके द्वारा घाते जाकर कृष्टि रूपताको प्राप्त होनेका प्रसंग उपस्थित होगा। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता है। * पुरुषवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । ४३८. शंका-क्षपकश्रेणिमें अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अनन्तगुणे हीन क्रमसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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