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________________ २६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । अणुभागविहत्ती ४ गुणो मायावेदगचरिमसमयणवकबंधाणुभागो तेहितो अणंतगुणहीणलोभमुहुमकिट्टि पेक्खिदूण णिच्छएणं अणंतगुणो त्ति घेत्तव्वं । 8 माणसंजलणस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । $ ४३५. कुदो ? तदियमाणसंगहकिट्टिवेदगचरिमसमयम्मि बद्धणवकबंधम्मि माणसंजलणाणुभागस्स जहण्णतब्भुवगमादो। मायासंजलणजहण्णाणुभागादो माणसंजलणजहण्णाणुभागस्स अणंतगुणतं कुदो णव्वदे ? किट्टीणमप्पोबहुआदो । तं जहासव्वत्थोवो मायासंजलणचरिमसमयणवकबंधाणुभागो। मायाए तदियविदियपढमसंगहकिट्टीणमणुभागो जहाकमेण अणंतगुणो। मायावेदगपढमसंगहकिट्टिअणुभागादो माणणवकबंधाणुभागो अणंतगुणो ति । * कोधसंजलणस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगणं । ४३६. कुदो ? चरिमसमयकोधवेदगेण बद्धाणुभागस्स गहणादो । एत्थ वि अणंतगुणतं पुवं व किट्टीणमप्पाबहुआदो साहेयव्वं । ® सम्मत्तस्स जहएणाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । लोभ की सूक्ष्मकृष्टि अनन्त गुणी हीन है । अत: लोभ कषायके सूक्ष्म कृष्टिरूप जवन्य अनुभागसे संज्वलन मायाका जघन्य अनुभागसत्कर्म नियमसे अनन्तगुणा है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । * उससे संज्वलन मानका अनुभागसत्कम अनन्तगुणा है । ४३५. क्योंकि मान कषाय की तीसरी संग्रह कृष्टिके वेदक कालके अन्तिम समयमें बद्ध नवक समय प्रबद्धमें जो अनुभाग है उसे जघन्य माना गया है। शंका-माया संज्वलनके जघन्य अनुभागसे मान संज्वलनका जघन्य अनुभाग अनन्त गुणा है यह किस प्रमाणसे जाना ? समाधान-कृष्टियोंके अल्प बहुत्वसे जाना। खुलासा इस प्रकार है--अन्तिम समयमै माया संज्वलनका जो नवक बन्ध होता है, उसका अनुभाग सबसे थोड़ा है। उससे माया की तीसरी, दूसरी और पहली संग्रह कृष्टियोंका अनुभाग क्रमशः अनन्त गुणा है । और मायाके वेदक कालकी प्रथम संग्रह कृष्टिके अनुभागसे मान कषायके नवकबन्धका अनुभाग अनन्त गणा है। * उससे संज्वलन क्रोधका अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है । - ४३६. क्योंकि क्रोधका वेदन करनेवाले क्षपकके द्वारा अन्तिम समयमें जो अनुभागबन्ध किया जाता है उसका यहाँ ग्रहण किया जाता है। यहाँ परभी पहले की तरह कृष्टियो के अल्पबहु वसे अनन्तगुणत्व साध लेना चाहिये। अर्थात जैसे पहले मायासंज्वलनके जघन्य अनुभागसे मानसंज्वलनके जघन्य अनुभागको अनन्तगुणा सिद्ध किया है वैसेही यहाँ परभी सिद्ध करना चाहिए। * उससे सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्त गुणा है । १. ता प्रतौ णिच्छएण अणं तगुणहीणो त्ति इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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