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________________ गां० २२ ] अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुअं २५९ * सम्मत्तमणंतगुणहीणं । ४३१. कुदो ? सम्मामिच्छत्तजहण्णाणुभागफद्दयादो हेहा अणंतगुणहीणं होदूण सम्मत्तकस्सफद्दयस्स अवहाणादो। जथा ओघप्पाबहुअं परूविदं तहा चदुसु वि गदीसु णेयव्वं, विसेसाभावादो । एवमुवरि जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । & जहणणाणुभागसंतकम्मंसियदंडो। ४३२. जहण्णाणुभागसंतकम्मंसियजीवाणमणुभागमस्सिदण अप्पाबहुअदंडओ कीरदि त्ति भणिदं होदि ।। 8 सव्वमंदाणुभागं लोभसंजलणस्स अणुभागसंतकम्मं । ४३३. कुदो ? कोधकिट्टिवेदयपढमसमयप्पहुडि अणंतगुणहीणाए सेढीए अणुसमयमोवट्टणघादमुवणमिय पुणो सुहुमसांपरायचरिमसमए सुहुमकिट्टिसरूवाणुभागम्मि जहण्णत्तुवलंभादो। 2 मायासंजलणस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । ३४३४. कुदो ? मायावेदगचरिमसमयम्मि बद्धस्स मायावेदगतदियबादरसंगहकिट्टिसरुवस्स णवगबंधस्स गहणादो। लोभवादरतिण्णिसंगहकिट्टीहिंतो अणंत ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ ~~~~~~~~ * सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। ६४३१. क्यो कि सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य अनुभाग स्पर्धको से नीचे अनन्तगुणे हीन होकर सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागस्पर्धक अवस्थित हैं। अर्थात् सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभाग स्पर्धक सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनभागस्पर्धको से भी नीचे अवस्थित हैं और वह भी अनन्तगुणे हीन होकर, अत: उसका उत्कृष्ट अनुभाग सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसे अनन्त गुणा हीन है। जैसे ओघसे अल्पबहुत्त्व कहा है वैसे ही आदेशसे भी चारों ही गतियोमें जानना चाहिये, दानों में कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार जानकर आगे अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये। 8 जघन्य अनुभागसत्कर्मवाले जीवोंके आश्रयसे दण्डक कहते हैं । $ ४३२. जघन्य अनुभागसत्कर्मवाले जीवोंके अनुभागका आश्रय लेकर अल्पबहुत्वदण्डकका कथन कहते हैं, ऐसा इस सूत्रका अभिप्राय है। * लोभ संज्वलनका अनुभागसत्कर्म सबसे मन्द अनुभागवाला है। ४३३. क्योंकि क्रोधकृष्टिके वेदकके प्रथम समयसे लेकर प्रति समय अनन्तगुण हीन श्रेणि रूपसे अपवर्तन घातको प्राप्त होकर सूक्ष्म साम्परायके अन्तिम समयमें सूक्ष्म कृष्टिरूप अनुभागके रहते हुए जघन्यपना पाया जाता है, अत: वह सबसे मन्द है। ... * उससे संज्वलनमायाका अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है। $ ४३४. क्योंकि यहाँ पर माया वेदक कालके अन्तिम समयमें बांधा गया जो नवक समयप्रवद्ध है जो कि माया वेदककी तीसरी बादर संगहकृष्टि स्वरूप है उसका ग्रहण किया है। क्योंकि माया वेदक कालके अन्तिम समयमें बद्ध नवक समयप्रबद्धका अनुभाग लोभ कषाय की तीनों बादर संगृह ऋष्टियोंसे अनन्तगुणा है और लोभकी उन तीनों बादर संग्रह कृष्टियोंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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