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________________ २७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे णवरि सम्मत्तस्स विदियादि जाव सत्तमिति एवं चेव । पंचिंदियतिरिक्ख जोणिणी-भवण ० - वाण ० - जोइसिए ति । | ४७३. पंचिदियतिरिक्ख अपज्ज० -- मणुस अपज्जत्तएसु छब्बीसं पयडीणमत्थि भुज ० -- अप्पदर० -- अवधि ० | सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमत्थि अवद्विदं । मणुसतियस्स ओघभंगो | आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति वावीसं पयडीणमत्थि अवद्वि० - अप्पदर० । सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं देवोघभंगो । अनंताणु ० चउक्क० अस्थि भुज ० - अप्पदर०अवहि० - अवत्तव्व० । अणुद्दिसादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति सत्तावीसं पयडीणमत्थि अपदर० - अवद्वि० । सम्मामि० अत्थि अवद्विदविहत्तिया । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारिति । [ अणुभागविहत्ती ४ सम्मामिच्छत्तभंगो । एवं लेकर सहस्रार तक के देवोंमें जानना चाहिए। दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ सम्यक्त्वका भङ्ग सम्यग्मिथ्यात्व की तरह होता है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में जानना चाहिए । १४७३. पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियों की भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तियाँ होती हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्ति होती है । सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें ओघ के समान भंग है । श्रत स्वर्गसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियों की अवस्थित और अल्पतरविभक्तियाँ होती हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सामान्य देवोंके समान भंग है । अनन्तानुबन्धीचतुष्क की भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तियाँ होती हैं । अनुदि लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियों की अल्पतर और अवस्थित विभक्तियाँ होती हैं । सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थितविभक्ति होती है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त जाना चाहिये । 1 विशेषार्थ - घसे वक्तव्यविभक्ति सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी में ही होती है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होकर पुनः उसका सत्र हो जाता है । तथा शेष दोनों प्रकृतियों का भी अनादि मिथ्यादृष्टिके असत्त्व होता है और सम्यक्त्वके होने पर सत्त्व हो जाता है । तथा सादि मिध्यादृष्टि के भी उद्वेलना कर देने पर इनका असत्त्व हो जाता है और सम्यक्त्वके होने पर पुनः सत्त्व हो जाता है अन्य प्रकृतियोंमें यह बात नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों में भुजकारविभक्ति नहीं होती, क्योंकि इनका जो अनुभाग रहता है दर्शनमोह के क्षपण कालमें वह घट तो जाता है, किन्तु बढ़ता कभी भी नहीं है, क्योंकि ये बन्ध प्रकृतियां नहीं हैं। आदेशसे नारकियोंमें सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिमें अल्पतरविभक्ति नहीं होती, क्योंकि वहाँ दर्शनमोह का क्षपण नहीं होता । सम्यक्त्व प्रकृति में कृतकृत्यवेदक की अपेक्षा अल्पतर विभक्ति वहाँ होती है । जहाँ कृतकृत्यवेदक जन्म नहीं लेता, जैसे दूसरे आदि नरक और भवनत्रिक वहाँ सम्यक्त्व प्रकृति में भी अल्पतरविभक्ति नहीं होती । मनुष्य अपर्याप्त और तिर्यश्व पर्याप्तको में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिमें अवक्तव्य विभक्ति भी नहीं होती, क्योंकि वहाँ सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता । श्रनत से लेकर उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त अनन्तानुबन्धी कषाय में तो भुजकार विभक्ति होती है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक मित् पुनः उसका संयोजन करने पर अनुभाग को बढ़ाता है किन्तु अन्य किसी भी प्रकृति में भुजगार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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