SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२ अणुभागविहत्तीए भुजगारसमुक्कित्तणा २७३ क्खोघं पंचिदियतिरिक्खदुग -[ देव ] सोहम्मादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० जहणणं णत्थि । एवं पंचितिरि० जोणिणी- पंचि०तिरि० अपज्ज० - मणुस अपज्ज० भवण० वाण० जोइसिए ति । एवमप्पा बहुआणुगमो समत्तो । * जहा बंधे भुजगार --पदणिक्खेव बड्डीओ तहा व्वाओं । संतकम्मे वि काय $ ४७१. अणुभागबंधे जहा भुजगार - पदणिक्खेव-वडीणं परूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा, विसे साभावादो । एवं चुरिणमुत्तेण सुइदअत्थाणं उच्चारणमस्तिदू परूवणं कस्सामो । भुजगारविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति - समुत्तिणादि जाव अप्पाबहुए ति । तत्थ समुक्कित्तणाए दुविहो दिसो - ओघेण देण य । ओघेण मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० अत्थि भुज०अप्पदर० - अवदि० । सम्मत्त० सम्मामि० अस्थि अप्पदर अवढि ०-अवत्तव्व० । अणंताणु ० चक्क० अत्थि भुज० - अप्पदर० - वडि० - अवत्तव्व ० 1 0 $ ४७२. आदेसेण णेरइएस सत्तावीसपयडीणमोघं । सम्मामि० अस्थि अवि अवत्तव्व । एवं पढमपुढवि०-तिरिक्खतिय- देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में जानना चाहिए। दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग नहीं होता। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए | इस प्रकार अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ । * जैसे बन्धमें भुजकार, पदनिक्षेप और वृद्धिका कथन किया वैसे ही सत्ता में भी करना चाहिये । ६४७१. अनुभागबन्धमें जैसे भुजकार, पदनिक्षेप और वृद्धिका कथन किया है वैसे ही यहाँ भी करना चाहिये, दोनोंमें कोई विशेष नहीं है । इस प्रकार चूर्णिसूत्र से सूचित अर्थका उच्चारणाका आलम्बन लेकर कथन करते हैं । भुजकार विभक्तिमें ये तेरह अनुयागद्वार जानने चाहिये - समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्वपर्यन्त । उनमें से समुत्कीर्तना की अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - घ और आदेश । श्रघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नाकपायों की भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तियां होती हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तियाँ होती हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्क की भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तियाँ होती हैं । ९ ४७२. आदेश से नारकियोंमें सत्ताईस प्रकृतियों की ओघ के समान विभक्तियाँ होती हैं । सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तियाँ होती हैं । इसी प्रकार पहली प्राथवा, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे १. आ० प्रतौ कायण्वो इति पाठः । ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy