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________________ २७२ जयधवलासहिदे कषायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ४६६. जहएणए पयदं। दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघमस्सिदूण भएणमाणे जहा चुण्णिसुत्ते परूपणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा, विसेसाभावादो । एवं मणुसतियस्स । णवरि मणुसपज्जत्तप्पाबहुए भएणमाणे पुरिसवेदजहण्णाणुभागस्सुवरि णवंसय० जहरणाणुभागो अणंतगुणो। सम्मामि० जह० अणंतगुणो । अणंताणुबंधिमाण० जहणणाणुभागो अणंतगुणो । कोधे० विसेसा० । मायाए विसे० । लोहे० विसे० । तदो हस्सादिपरिवाडीए छण्णोकसाया जहाकममणंतगुणा होऊण पुणो इत्थि० जहएणाणुभागो अणंतगुणो। कुदो ? चरिमाणुभागखंडए जादजहएणाणभागत्तादो । अपच्चक्रवाणमाणजहएणाणभागो अणंतगुणो। सेसं पुव्वं व। मणुसिणीसु सम्मत्तजहएणाणभागस्सुवरि इत्थि. जहण्णाणभागो अणंतगुणो । सम्मामि० जह० अणंतगुणो। अणंताणुबंधिमाण० जह० अणंतगुणो। कोहे० विसे० । मायाए विसे० । लोहे. विसे० । तदो छण्णोकसायहस्सादिपरिवाडीए जहाकममणंतगुणा होऊण पुणो पुरिस० जहणाणुभागो अणंतगुणो । णवूस० जह० अणंतगुणो । अपच्चक्खाणमाण० जह० अणंतगुणो । उवरि णत्थि विसेसो । ४७०. आदेसेण णिरयगईए गैरइएमु जहा चुण्णिसुत्तम्मि जेरइअोघप्पाबहअपरूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा, विसेसाभावादो। एवं पढमपुढवि०-तिरि ९४६९. जघन्यके कथनका अवसर है। निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा कथन करने पर जैसा चूर्णिसूत्र में कथन किया है वैसा ही यहाँ भी करना चाहिये। उससे इसमें कोई अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिए। किन्तु मनुष्यपर्याप्तकोंमें अल्पबहुत्वका कथन करते हुए इतना विशेष जानना चाहिए कि पुरुषवेदके जघन्य अनुभागसे आगे नपुंसकवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगणा है । उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे क्रोधका विशेष अधिक है। उससे मायाका विशेष अधिक है। उससे लोभका विशेष अधिक है। उससे हास्य आदिके क्रमसे छ नोकषायोंका जघन्य अनुभाग क्रमानुसार अनन्तगुणा अनन्तगुणा होता हुआ पुनः स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है, क्योंकि उसका अन्तिम अनुभागकाण्डकमें जघन्य अनुभाग प्राप्त होता है। उससे अप्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगणा है। शेष पूर्ववत जानना चाहिए । मनुष्यिनियोंमें सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसे आगे स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगणा है। उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे क्रोधका विशेष अधिक है। उससे मायाका विशेष अधिक है । उससे लाभका विशेष अधिक है। उससे हास्य आदिके क्रमसे छह नोकषायों का जघन्य अनुभाग क्रमानुसार अनन्तगुणा होता हुआ पुनः पुरुषवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगणा है। उससे नपुंसकवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे अप्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । आगे कोई विशेषता नहीं है। ४७०. आदेशसे नरकगतिमें नारकियोंमें जैसे चूर्णिसूत्र में सामान्य नारकियोंमें अल्पबहुत्वका कथन किया है वैसा ही यहाँ भी करना चाहिये, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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