SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ५७. सम्मत्ताणु० सम्मादिही. मोह. ज. जहण्णुक्क० एगस । अज. ज० अंतोमु०, उक्क० णवणउइसागरो० सादिरेयाणि छासहिसागरो० सादिरेयाणि वा। खइय. मोह. जह० जहण्णुक्क० एगस । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । वेदग० मोह० जह० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० छासहिसागरोवमाणि । उवसम० मोह० जहण्णाणु० जहण्ण० उक्क० अंतोमु० । अज. जहण्णुक्क. अंतोमु० । सासण. मोह० ज० ज० एगस०, उक्क० छ आवलियाओ । एवमजहण्णं पि। सम्मामि० मोह० ज० जहण्णुक० अंतोमु० । एवमजहण्णं पि । मिच्छादिही. मोह० ज. ज. उक्क० अंतोमु० । अज. ज. अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। घटित कर लेना चाहिए। एकेन्द्रियोंमें जघन्य अनुभाग होनेके बाद वह अन्तमुहूर्त काल तक अवश्य रहता है, इसलिए इसका अभव्योंमें जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है यह स्पष्ट ही है। ६५७. सम्यक्त्वकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक निन्यानवे सागर है । अथवा कुछ अधिक छियासठ सागर है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेतीस सागर है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ठ काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल छियासठ सागर है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छ प्रावलिका है। इसी प्रकार अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल भी है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अजघन्य अनुभागविभक्तिका भी काल है। मिथ्यादृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात लोक है। विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टिके क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें जघन्य अनुभाग होता है, अतः उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल मोटे तौरपर दोनोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी तरह जानना चाहिए। वेदकसम्यक्त्वमें दोबार उपशमश्रेणीपर चढ़कर, उससे उतरकर दर्शनमोहनीयका क्षय करके कृतकृत्यभावको प्राप्त हुए जीवके प्रथम समयमें मोहका जघन्य अनुभाग होता है, अतः उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा उपशमसम्यक्त्वमें दुबारा उपशम श्रेणीपर चढ़कर ग्यारहवें गुणस्थानमें वर्तमान जीवके जघन्य अनुभाग होता है, अत: उसका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। और अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy