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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए कालो ५५. लेस्साणु० किण्ह--णील-काउ० मोह० ज० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरोवमाणि सादिरेयाणि । तेउ०-पम्म० मोह० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० वे--अहारससागरो. सादिरेयाणि । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० वे-अहारससागरो० सादिरेयाणि । सुक्क० मोह. ज० जहण्णुक्क० एगस० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि। ५६. भवियाणु० भवसि० ओघ । अभवसि० मोह० ज० जहण्णुक० अंतोमु०। अज० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। विशेषार्थ-क्षपक सूक्ष्मसाम्परायमें भी चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन होते हैं, इसलिए इनमें जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । चक्षुदर्शनका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल दो हजार सागर है, अत: इसमें अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा है । अचक्षुदर्शन भव्य और अभव्य दोनोंके होनेसे उसमें अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अभव्योंके अनादि-अनन्त और भव्योंके अनादिसान्त कहा है। अवधिदर्शनवालोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है यह स्पष्ट ही है। ६५५. लेश्याकी अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ अधिक तेतीस सागर, कुछ अधिक सतरह सागर और कुछ अधिक सात सागर है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल क्रमश: कुछ अधिक दो सागर और कुछ अधिक अठारह सागर है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ अधिक दो सागर और कुछ अधिक अठारह सागर है। शुक्ललेश्यावालोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेतीस सागर है। विशेषार्थ-कृष्णादि तीन लेश्याओंमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एकेन्द्रिय की तरह घटित कर लेना चाहिए। तथा अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल प्रत्येक लेश्याके उत्कृष्ट काल की तरह है यह स्पष्ट ही है । एक जीव की अपेक्षा तेजोलेश्या और पद्मलेश्याका जितना जघन्य और उत्कृष्ट काल है उतना ही उनमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है। शुक्ललेश्यामें क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें मोहका जघन्य अनुभाग होता है, अत: उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है तथा अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल शुक्ललेश्याके एक जीव की अपेक्षा काल को ध्यानमें रखकर कहा है। ५६. भव्यकी अपेक्षा भव्यों में ओघके समान भङ्ग है। अभव्योंमें मोहनीयकर्म की जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है।... विशेषार्थ-ओघसे जिस प्रकार कालको घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार भव्योंमें १. ता. प्रतौ सादिरेयाणि....."तेउ० इति पाठः । .. ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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