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________________ १५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहन्ती ४ तस्स दुढाणियत्ताणुववत्तीदो ? ण एस दोसो, ववएसिवन्भावेण दारुसमाणफयाणं केवलाणं पि दुहाणियत्तुववत्तीदो । कुतो व्यपदेशिवद्भावः ? लता-दारुसमानस्थानाभ्यां केनचिदंशान्तरेण समानतया एकत्वमापन्नस्य दारुसमानस्थानस्य तद्वयपदेशोपपत्तेः । समुदाये वृत्तस्य शब्दस्य तदवयवेऽपि प्रवृत्युपलम्भावा । समाधान-यह कोई दोष नहीं है; क्यो कि व्यपदेशिवद्भावसे केवल दारुसमान स्पर्धकोंका भी द्विस्थानिकपना बन जाता है। शंका-व्यपदेशिवद्भाव से है ? समाधान-किसी अंशान्तरकी अपेक्षा समान होनेके कारण लतासमान और दारुसमान स्थानोंसे दारुसमान स्थान अभिन्न है, अत: उसमें द्विस्थानिक व्यपदेश हो सकता है। अथवा जो शब्द समुदायमें प्रत्त होता है उसके अवयवमें भी उसकी प्रवृत्ति देखी जाती है, अत: केवल दारुसमान स्थानको भी द्विस्थानिक कहा जा सकता है। विशेषार्थ-चूर्गिसूत्रमें मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मको सर्वघाती और द्विस्थानिक कहा है । इस पर यह शंका की गई कि मिथ्यात्वके अनुभागस्पर्धको की रचनाका कथन करते हुए सम्यग्मिथ्यात्व प्रति अनुभागस्पर्धको को स्पष्टरूपसे सर्वघाती बतलाकर उससे आगेके सूत्रमें सम्यग्मिथ पात्व प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागस्पर्धक.के अनन्तरवर्ती स्पर्धकसे लेकर आगेक सब सधैंक मिथ्यात्वक बतलाये हैं। इससे सिद्ध है कि मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है, अत: उक्त सूत्रमें पुन: उसका सर्वघाती बतलाना व्यर्थ है। इसका समाधान तीन प्रकारसे किया गया है। पहला- स्पर्धक रचनाका उद्देश केवल स्पर्धकरचनाको बतलाना है. सर्वघातित्व और असर्वघातित्वको बतलाना उसका उद्देश्य नहीं है । यद्यपि युक्ति से यह मालूम होजाता है कि मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागस्पर्धक सर्वघाती है किन्तु इस आगमिक ग्रन्थमें युक्ति प्रधान नहीं है, किन्तु कंठोक्तरूपसे जो कहा जाय वही प्रधान है, अत: मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है यह वचन कहना ही चाहिये। दूसरे, जैसे चारित्रमोहकी क्षपणाम संज्वलनकषायोंका पूर्वस्पर्धक, अपूर्वस्पर्धक और कृष्टीकरण के द्वारा देशवातिविधान बतलाया है वैसे दरोनमोहकी क्षपणामें मिथ्यात्वके अनुभागका देशघातिविधान नहीं होता यह बतलानेके लिये मिथ्यात्व जघन्य अनुभागसत्कर्मको सर्वघाती बतलाया है। तीसरे, सूक्ष्मनिगोदिया जीवके मिथ्यात्वका जो जघन्य अनुभागसत्कर्म रहता है उससे अनन्तगुण अनुभागसत्कर्मके रहते हुए मिथ्यात्वका क्षरण होता है यह बतलानेके लिये मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती होता है यह बतलाया है । तथा मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्भ विस्थानिक हाता है क्योकि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म दारुरूप होता है और उसके अनन्तरवर्ती स्पर्धकसे मिथ्यात्वका अनुभागसत्कर्म प्रारम्भ होता है अत: वह भी द्विस्थानिक है। इस पर यह शंका की गई कि मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग सत्कर्म दारुप है और यत: उसे विस्थानिक कहा है अत: दो स्थानों से दारु और अस्थिका ग्रहण करना चाहिये, लताका ता ग्रहण हो ही नहीं सकता, क्योंकि मिथ्यात्वका अनुभागसत्कर्म लतारूप नहीं बतलाया है। इसका यह समाधान किया गया है कि जो स्पधक केवल दारुसमान हैं उन्हें भी द्विस्थानिक कह सकते है, क्योंकि द्विस्थानिक संज्ञा लतासमान और दारुसमान स्पर्धकोंकी है। किन्तु जो स्पर्धक केवल दारुसमान हैं वे दारुरूपसे लता-दारु स्थानके समान हैं। अर्थात् उनकी परस्परमें दारुरूपसे समानता है अत: लता-दारु समान स्पध कके लिये व्यवहृतकी जानेवाली विस्थानिक संज्ञा केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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