SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ rrrrrrrrrrrrrrrrrrn जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ २२. आदेसेण णेरइएस मोह० ज० अणुभागो कस्स ? अण्णद. जो हदसमुप्पत्तियअणुभागसंतकम्मसिओ असण्णिपच्छायदों णेरइएसु उववण्णो पुणो जाव सो बंधेण ण वडदि ताव तस्स जहणिया अणुभागविहत्ती। एवं पढमाए पुढवीए । विदियादि जाव सत्तमि त्ति मोह० जहण्णाणुभागो कस्स ? अण्णदरस्स उक्कस्सपरिणामेहि अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइदसम्माइहिस्स। एवं जोदिसियदेवाणं पि वत्तव्वं । $ २३ तिरिक्खेसु मोह० जहण्णाणुभागो कस्स ? अण्णद० जो "सुहुमेइंदिओ अपज्जत्तो कदहदसमुप्पत्तियसंतकम्मो जाव जहण्णाणुभागसंतकम्मस्सुवरि बंधेण ण विशेषार्थ अनुभागकाण्डकघात आदि क्रियाविशेषके कारण क्षपक सूक्ष्मसाम्यरायके अन्तिम समयमें मोहनीयका सबसे जघन्य अनुभाग उपलब्ध होता है, इसलिए अन्तिम समयवर्ती क्षपक सूक्ष्मसाम्यरायिक जीवको जघन्य अनुभागका स्वामी कहा है। मूलमें गिनाई गई अन्य मार्गणाओंमें यह अवस्था सम्भव है, अतः उनका कथन ओघके समान किया है। ६२२. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जो हतसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मवाला जीव असंज्ञी पर्यायसे आकर नारक पर्यायमें उत्पन्न हुआ है वह जब तक पुनः बन्धके द्वारा अनुभागको नहीं बढ़ा लेता है तब तक उसके जघन्य अनुभागविभक्ति होती है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जो सम्यग्दृष्टि उत्कृष्ट परिणामोंसे अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर चुका है उसके होता है। इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंमें भी कथन करना चाहिये। विशेषार्थ-सत्तामें स्थित अनुभागका घात करनेके बाद जो अनुभाग शेष बचता है उसे हतसमुत्पत्तिक अनुभागसत्कर्म कहते हैं। ऐसे अनुभागवाले असंज्ञीके नरकमें उत्पन्न होने पर उस नारकीके शरीर ग्रहणके पूर्व तक मोहनीयका जघन्य अनुभाग होता है। इसलिए सामान्यसे नरकमें ऐसे जीवको जघन्य अनुभागका स्वामी कहा है। प्रथम नरकमें ऐसा जीव उत्पन्न होता है, इसलिए उसका कथन सामान्य नारकियोंके समान किया है। किन्तु द्वितीयादि नरकोंमें संज्ञीके योग्य अनुभाग ही सम्भव है, इसलिए वहाँ जघन्य अनुभागका स्वामित्व जिसने उत्कृष्ट परिणामोंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है ऐसे जीवको दिया है। ज्योतिषी देवोंमें इसी प्रकार जघन्य स्वामित्व प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए उनका कथन द्वितीयादि नरकोंके नारकियोंके समान किया है। ६२३. तिर्यञ्चोंमें मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जो हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मवाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक जीव जब तक जघन्य अनुभाग सत्कर्मके ऊपर बन्धके १. 'हते घातिते समुत्पत्तिस्य तद् हतसमुत्पत्तिकं कर्म । अणुभागसंतकम्में धादिदे जमुवरिद जहण्णाणुभागसंतकम्मं तस्स हदसमुप्पत्तियकम्ममिदि सण्णा ति भणिदं होदि । ज० ध० अनु० वि० । ""हतं विनाशितं प्रभूतमनुभागसत्कर्म येन स हतसत्कर्मा ॥५३॥ कर्मप्र० सं० २. "णिरयगदीए मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं कस्स ? असएिणस्स हदसमुष्पत्तियकम्मेण पागदस्स ।” चू० सू०, ज० ध०, अनु० वि०। ३. श्रा० प्रतौ वट्टदि इति पाठः । ४. "मिच्छत्तस्स जहएणयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? सुहुमस्स । हदसमुप्पत्तियकम्मेण अएणदरो एइंदिश्रो वा वेइंदिनो वा तेइंदिओ वा चउरिंदिनो वा असएणी वा सरणी वा सुहुमो वा बादरो वा पजतो वा अपज्जतो वा जहण्णाणुभागसंतकम्मिश्रो होदि ।” चू० सू०, ज० ध०, अनु० वि० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy