SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२ ] अणुभागवित्तीए सामि 0 दि ताव तस जहणओ अणुभागो । एवमेइंदिय-मुहुमेई दिय-मुहुमेई दिय अपज्जत वणष्फदि-णिगोद-मुहुमवणप्फदि- सुहुमणिगोद तेसिं चेव अपज्जत० ओरालियमिस्स ० दोणि अण्णाण संजद ० - तिणिले ० - अभव०-मिच्छादिहि असण्णि त्ति । 0 १ २४. पंचिदियतिरिक्खेसु मोह० जहण्णाणुभागो कस्स ? अण्णदरस्स जो पंचिंदियतिरिक्खो कदहदसमुप्पत्तियमुहुमेइंदियचरो जाव जहण्णसंतकम्मस्सुवरि ण ण बंध ताव तस्स जहण्णओ अणुभागो । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तापज्जत-पंचिं० तिरि० जोणिणि मणुस अपज्ज०-- सव्वबादरेइंदिय- मुहुमेइं दियपज्ज०- सव्वविगलिंदिय-- पंचिंदियअपज्ज०-- सव्वचत्तारिकाय - सव्वबादरवणफदिकाइय--सव्वबादरणिगोद- सुहुमवणफदि --मुहुमणिगोदपज्ज० - तस अपज्ज० कम्मइय० - अणाहारि ति । $ २५. देव भवण० -- वाण० - वेडव्वियमिस्सं० णेरइयभंगो | सोहम्मादि जाव सव्वसिद्धि त्ति मोह० जहण्णाणुभागो कस्स ? अएणद० जो एक्कम्हि भवे दोवार - १७ द्वारा अनुभागको नहीं बढ़ा लेता है तबतक उसके जघन्य अनुभाग होता है । इसी प्रकार एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक, वनस्पतिकायिक, निगादिया, सूक्ष्म वनस्पति, सूक्ष्म निगोदिया और उनके अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कुमतिज्ञानी, कुश्रुतज्ञानी, असंयत, तीनों अशुभ लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञीमें जानना चाहिये । विशेषार्थ - हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके ये सब मार्गणाऐं सम्भव हैं इसलिए इनमें जघन्य अनुभागका स्वामित्व तिर्यञ्चों के समान कहा है । २४. पचेन्द्रिय तिर्यवों में मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जिसने अनुभाग हतसमुत्पत्तिक किया है तथा जो सूक्ष्म एकेन्द्रियसे आकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याय में उत्पन्न हुआ है ऐसा जो पंचेन्द्रिय तिर्यंच जघन्य सत्कर्मके ऊपर जब तक अनुभाग बढ़ा कर नहीं बाँधता है तब तक उसके जघन्य अनुभाग होता है। इसी प्रकार पच ेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय तिर्यन पर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, मनुष्य अपर्याप्तक, सब बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पञ्च ेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब तेजस्कायिक, सब वायुकायिक, सब बादर वनस्पतिकायिक, सब बादर निगोद, सूक्ष्म वनस्पति, पर्याप्त, सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक, त्रस अपर्याप्तक, कार्मरणकाययोगी और अनाहारकमें जानना चाहिये । विशेषार्थ - इन सब मार्गणाओं में पच ेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों की उत्पत्ति सम्भव है और यथासम्भव शरीर ग्रहणके पूर्व तक उनके वह अनुभाग बना रहता है, इसलिए इनका कथन पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान किया है । २५. सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तर और वैक्रियिकमिश्रकाययोगीमें नारकियोंकी तरह भंग होता है । अर्थात् जैसे पहले नरकमें मोहनीयका जघन्य अनुभाग बतलाया है वैसे ही इनमें भी होता है, क्योंकि हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला असंज्ञी जीव इनमें भी जन्म ले सकता है। सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जो १. भा० प्रतौ वहृदि इति पाठः । २. प्रा० प्रतौ वढिदूण बंधदि इति पाठः । वाण० वेठ० वेउब्वियमिस्स ० इति पाठः । ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only ३. श्र• प्रतौ www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy