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________________ عمر بھر میں بھی میری امی نے نی १३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ फदगं ति एदागि सम्मत्तस्स फहयाणि होति त्ति घेत्तव्वं । लदासमाणजहण्णफद्दयमादि कादूण जाव देसघादिदारुअसमाणुकस्सफदयं ति हिदसम्मत्ताणुभागस्स कदो देसघादित्तं ? ण, सम्मत्तस्स एगदेसं घादेंताणं तदविरोहादो। को भागो सम्मत्तस्से तेण घाइज्जदि १ थिरत्तं णिक्कंक्वत्तं । * सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वघादिश्रादिफद्दयमादि कादूण दारुअसमापस्स अणंतभागे णिहिदं। : १६२. सम्मत्तुकस्सफदयस्स अणंतरउवरिमफद्दयं तं सव्वघादि सम्मत्तुक्कस्सफदयादो अणंतगुणं, तप्पाओग्गछहाणगुणगारेसु पविठेसु उप्पण्णत्तादो । एवं फद्दयमादि काण जाव दारुसमाणस्स अणंतिमभागो त्ति एदम्हि अंतरे अवहिदं सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं । सम्मामिच्छत्तफहयाणं कुदो सव्वघादितं ? णिस्सेससम्मत्तघायणादो । ण च सम्मामिच्छत्ते सम्मत्तस्स गंधो वि अस्थि, मिच्छत्तस्पर्धक होते हैं ऐसा अर्थ यहाँ ग्रहण करना चाहिये। शंका-लत रूप जघन्य स्पर्धकसे लेकर देशघाती दारुरूप उत्कृष्टस्पर्धक पर्यन्त स्थित सम्यक्त्वका अनुभाग देशघाती कैसे है ? समाधान नहीं, क्योंकि सम्यक्त्वप्रकृतिका अनुभाग सम्यग्दर्शनके एकदेशको घातता है. अत: उसके देशघाती होनेमें कोई विरोध नहीं है। शंका-सम्यक्त्वके कौनसे भागका सम्यकप्रकृति द्वारा घात होता है ? समाधान-उसकी स्थिरता और निष्कांक्षताका घात होता है। अर्थात् उसके द्वारा घाते जानेसे सम्यग्दर्शनका मूलसे विनाश तो नहीं होता किन्तु उसमें चल मलादिक दोष आ जाते हैं । विशेषार्थ-शक्तिकी अपेक्षासे कर्मोके अनुभागस्थानके चार विकल्प किये जाते हैं-- लतारूप, दारुरूप, अस्थिरूप और शैलरूप। लताभाग और दारुका अनन्तवाँ भाग देशघाती कहलाता है और दारुका शेष बहुभाग तथा अस्थि और शैलरूप अनुभाग सर्वघाती कहा जाता है । सम्यक्त्व प्रकृतिके स्पर्धक लता भागसे लेकर दारुक अनन्तवें भाग तक होते हैं, क्योंकि यह देशघाती है और इसके देशघाती होनेका सबूत यह है कि यह सम्यक्त्वको नहीं घातती. क्योंकि इसके उदयमें वेदकसम्यक्त्व होता है। सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका अनुभागसत्कर्म प्रथम सर्वघाती स्पर्धकसे लेकर दारुके अनन्तवेंभाग तक होता है। $ १९२. सम्यक्त्वके उत्कृष्ट स्पर्धकसे अनन्तरवर्ती जो आगेका स्पर्धक है वह सर्वघाती है जो कि सम्यक्त्वके उत्कृष्ट स्पर्धकसे अनन्तगुणी शक्तिवाला है क्योंकि उसके योग्य षट्स्थान गुणकारोंके होने पर उसकी उत्पति हुई है। अर्थात् अपने पूर्व के स्थानसे यह स्थान अपने योग्य षट्स्थान द्धियोंको लिये हुए है। इस स्पर्धकसे लेकर दारुभागके अनन्तवेंभाग पर्यन्त इस बीचमें जो स्पर्धक अवस्थित हैं वह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अनुभाग सत्कर्म है। . शङ्का-सम्यग्मिथ्यात्वके स्पर्धक सर्वघाती कैसे हैं ? १. श्रा० प्रती 'को पडिभागो सम्मतस्स' इति पाठः । २. प्रा० प्रतौ अणंतरउवरिमफड़यं इति पारः। तत्राग्रेऽप्येषमेव पाठ उपलभ्यते बहुआतया । ३. ता. प्रा. प्रत्योः 'एवं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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