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________________ १०९ गा. २२] अणुभागविहत्तीए फहयपरूवणा उत्तरपयडिअणुभागविहत्ती उत्तरपयडिअणुभागविहत्तिं वत्तइस्सामो। $ १८६. मोहणीयमूलपयडीए अवयवभूदमोहपयडीणमुत्तरपयडि ति ववएसो । तासिमुत्तरपयडीणमणुभागस्स विहत्तिं भेदं वत्तइस्सामो त्ति जइवसहाइरियपइज्जासुत्तमेदं । संपहि सव्वमोहुत्तरपयडीणमणुभागफद्दयाणं रयणाए अणवगयाए उवरिमअहियारा ण णव्वंति नि काउण फद्दयरयणपरूवणह-मुत्तरसु भणदि । ॐ पुव्वं गणिज्जा इमा परूवणा। $ १६०. इमा भणिस्समाणफद्दयपरूवणा पढमं चेव णायव्वा, अण्णहा सव्वघादिदेसघादिएगहाण-विहाण-तिद्वाण-चउहाणादिअणुभागवियप्पाणं जाणावणोवायाभावादो। * सम्मेत्तस्स पढमं देसघादिफद्दयमादि कादूण जाव चरिमदेसघादिफदगं त्ति एदाणि फयाणि । १६१. सम्मत्तस्स जं पढमं फद्दयं सव्वजहण्णं तं देसघादि चि जाणावण 'पढमं देसघादिफद्दयं इदि णिदिङ । समत्तस्स जं चरिमफद्दयं सव्वुकस्सं लदासमाणहाणं समुल्लंघिय दारुअसमाणहाणावहिदं तं पि देसघादि चि जाणावण 'चरिमदेसघादिफद्दयं त्ति' ति भणिदं । पढमदेसघादिफद्दयमादि कादण जाव चरिमदेसघादि उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति * अब उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्तिको कहते हैं। ६१८९. मूल मोहनीयकमकी अवयवभूत मोहप्रकृतियोंकी उत्तरप्रकृति संज्ञा है। उन उत्तरप्रकृतियोंके अनुभागकी विभक्ति अर्थात् भेदोंको कहते हैं । इस प्रकार यह आचार्य यतिवृषभका प्रतिज्ञारूप सूत्र है। अर्थात् इस सूत्र के द्वारा आचार्य ने उत्तरप्रकृतिके भेदो को कहनेकी प्रतिज्ञा की है। अब मोहनीयकी सब उत्तर प्रकृतियों के अनुभागस्पर्धककोंकी रचनाके जाने बिना आगेके अधिकार नहीं जाने जा सकते ऐसा विचार करके स्पर्धकरचनाका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * पहले इस प्ररूपणाको जानना चाहिये। १९८. अागे कही जानेवाली इस स्पर्धकप्ररूपणाको पहले ही जान लेना चाहिए, क्योंकि उसके जाने बिना अनुभागके सर्वघाती, देशघाती, एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक, चतु:स्थानिक आदि भेदोंके जाननेका कोई उपाय नहीं है। * सम्यक्त्वप्रकृतिके प्रथम देशघातिस्पर्धकसे लेकर अन्तिम देशघातिस्पर्धक पर्यन्त ये स्पर्धक होते हैं। $ १९१. सम्यक्त्वप्रकृतिका सबसे जघन्य जो पहला स्पर्धक है वह देशघाती है यह बतलानेके लिये प्रथम देशघातिस्पर्धक' ऐसा कहा है। सम्यक्त्वका सबसे उत्कृष्ट जो अन्तिम स्पर्धक है जो कि लताके समान स्थानका उल्लघन करके दारुसमान स्थानमें स्थित है। अर्थात् जा लतारूप न होकर दारुरूप है वह भी देशघाती है यह बतलानेके लिये 'अन्तिम देशघातिस्पर्धक ऐसा कहा है। प्रथम देशघाती स्पर्धकसे लेकर अन्तिम देशघाती स्पर्धक पर्यन्त ये सब सम्यक्त्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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