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________________ १२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ तदो । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । हदहदसमुप्पत्तियसंतकम्मट्ठाणाणि असंखेज्ज - गुणाणि । कुदो ? असंखेज्जलोग मेत्त हदसमुप्पत्ति यळवाणाणमह कुव्वंकाणं विचालेसु पुध पुध असंखेज्जलोगमेत्तहद हदसमुप्पत्तियसंतकम्महाणाणमुप्पत्तदो । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । एवं तदिय - चउत्थ-पंचमादिवारसमुप्पण्णहद हदसमुप्पत्तियसंतकम्मगाणं पितरमिहदहदसमुप्पत्तियसंतकम्मट्ठाणेहिंतो अनंतरउवरिमाणमसंखेज्जगुणतं वत्तव्वं । एवं मूलपय डिअणुभागविहत्ती समत्ता । -१०: शङ्का–यहाँ पर गुणकारका प्रमाण कितना है ? समाधान - असंख्यात लोक । अर्थात् बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंसे हतसमुत्पत्तिकस्थान असंख्यातलोकगुणे हैं | इनसे हतहतसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थान असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि अष्टांकसे लेकर उर्वकरूप असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पतिक षट्स्थानों के बीच में पृथक् पृथक् असंख्यात लोकप्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थानों की उत्पत्ति होती है । यहाँ पर भी गुणकार असंख्यात लोक है । इस प्रकार तीसरे, चौथे, पाँचवें आदि वार उत्पन्न हतहत समुत्पत्तिकसत्कर्मस्थानोंमें भीतर पूर्व हतहतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थानोंसे अनन्तर उत्तरवर्ती हतहतसमुत्पत्तिकसत्कर्म स्थान श्रसंख्यातगुणे कहने चाहिये । Jain Education International विशेषार्थ - मोहनीयकर्म के बन्धसमुत्पत्तिक स्थान सबसे थोड़े हैं। उनसे हतसमुत्पत्तिक अनुभागसत्कर्मस्थान असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि एक एक बन्धस्थानके मध्य में असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान उत्पन्न होते हैं, अत: जब बन्धस्थान असंख्यात लोकप्रमाण है और एक एक बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी षट्स्थानके अष्टांक और उर्वकके बीच में असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान होते हैं तो बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंसे घातस्थान या हतसमुत्पत्तिकस्थान असंख्यातगुणे सिद्ध होते हैं । इसीप्रकार असंख्यात लोकप्रमाण हृतसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी षट्स्थानोंके अष्टांक और उर्वकों के अन्तरालोंमें से प्रत्येक अन्तराल में असंख्यात लोकप्रमाण हृतहृतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं, अतः हतसमुत्पत्तिकस्थान से हुतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंका प्रमाण असंख्यात लोकगुणा होता है, इसलिये वे सबसे अधिक होते हैं । इस प्रकार मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति समाप्त हुई । -:8:52 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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