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________________ ४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ एवं तिरिक्खोघं। ___ ६१. आदेसेण णेरइएमु मोह० उक्कस्साणुभागमंतरं केव० १ ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीससागरो० देसूणाणि । अणुक्क० ओघं । एवं सव्वणेरइयाणं। गवरि सगसगहिदी देसूणा । पंचिंदियतिरिक्खतिएम मोह० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अणुक्क० ओघं । मणुस्सतियस्स पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० उक्क० अणुक्क० णत्थि अंतरं । एवं मणुस्सअपज्ज. आणदादि जाव सव्वहसिदि त्ति । देवेसु मोह० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० अहारससागरो० सादिरेयाणि । अणुक्क० ओघं । एवं भवणादि जाव सहस्सार त्ति । णवरि सग-सगहिदी वत्तव्वा । भागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिये । विशेषार्थ-इस प्रकरणमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके अन्तरकालका विचार किया गया है। जैसे एक संज्ञी पञ्चन्द्रिय मिथ्यादृष्टिने उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके उसका घात कर दिया। तथा पुन: अन्तर्मुहूर्तमे उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किया। इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त होता है। और यदि वह एकेन्द्रिय पर्यायमें उत्कृष्ट अनुभागका घात करके अनन्त कालतक एकेन्द्रिय ही रहा आवे और उसके बाद संज्ञी पञ्चन्द्रिय होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके उत्कृष्ट अनुभागवाला हो जाय तो उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात पुद्गलपरावर्तन होता है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है. क्योंकि उत्कृष्ट अनुभाग अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक नहीं उपलब्ध होता। ६६१. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर काल कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें अन्तर काल होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त और पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी इन तीनोंमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर ओघकी तरह है। सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकके समान भङ्ग है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों और आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें भी समझ लेना चाहिए। सामान्य नवोंमे मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक अठाहर सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार भवनवासी से लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि प्रत्येकमें अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति लेनी चाहिये। ' विशेषार्थ ओघसे जो अन्तर काल घटित करके बतलाया है उसी प्रकार सामान्य नारकी, सातों पृथिवियोंके नारकी, पञ्चन्द्रियतियंञ्चत्रिक और मनुष्यत्रिकमें घटित कर लेना चाहिए। मात्र उत्कृष्ट अनुभागके उत्कृष्ट अन्तरमे विशेषता है। बात यह है कि इन सब मार्गणाओंकी स्थिति भिन्न भिन्न है, इसलिए जहाँ जो स्थिति हो उससे कुछ कम वहाँ उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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