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________________ गा० २२) अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा ३७९ . फद्दयंतरादो अणंतगुणं । कारणं चिंतिय वत्तव्वं ! ६१७. पक्खेवसलागाओ सव्वासु वडीसु अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धागंतिमभागमेत्ताओ। सगसगफद्दयसलागाहि वड्डिदअणुभागे भागे हिदे सव्वत्थ फद्दयंतरुप्पत्ती वत्तव्वा । एवमेगस्स बंधसमुप्पत्तियछटाणस्स जहा परूवणा कदा तहा अवसेसअसंखेजलोगभेत्तछहाणाणं अकेण विणा पच्छिल्लपंचहाणाणं च परूवणा कायव्वा । एवमेसा बंधसमुप्पत्तियहाणपरूवणा कदा । पहलेके समस्त स्पर्धकान्तरसे अनन्तगुणा है । इसका कारण विचार कर कहना चाहिये। ६१७, सब वृद्धियोंमें प्रक्षेप शलाकाएँ अभव्यराशिसे अनन्तगुणी और सिद्धराशिके अनन्तवें भागमात्र हैं। बढ़े हुए अनुभागमें अपनी अपनी स्पर्धक शलाकाओंका भाग देनेपर सर्वत्र स्पर्धकान्तरकी उत्पत्ति कहनी चाहिये । इस प्रकार जिस क्रमसे एक बन्धसमुत्पत्तिक षटस्थानका कथन किया है उसी क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण समस्त पदस्थानोंका तथा अष्टांकके विना पीछेके पाँच स्थानोंका कथन कर लेना चाहिये। विशेषार्थ-जघन्य अनुभागस्थानके ऊपर जो काण्डकप्रमाण अनन्तानुभागवृद्धिस्थान हुए थे उनमेंसे अन्तिम अनुभागवृद्धिस्थानमें असंख्यात लोकका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसे उसी अन्तिम अनुभागवृद्धिस्थानमें जोड़नेसे पहला असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। इस स्थानका अन्तर नीचेके स्थानके अन्तरसे अनन्तगुणा है, क्योंकि समस्त जीवराशिमें असंख्यात लोकका भाग देनेसे जो लब्ध आता है वही यहाँ गुणकार है । इस असंख्यातभागवृद्धिरूप प्रक्षेपमें इस स्थानकी स्पर्धक शलाकाओंका भाग देनेपर जो लब्ध आता है वही यहाँ स्पर्धकान्तरका प्रमाण होता है। यह स्पर्धकान्तर नीचेके स्थानके स्पर्धकान्तरसे अनन्तगुणा है, क्योंकि नीचेके अनन्तभागवृद्धिस्थानकी स्पर्धक शलाकाओंसे रूपाधिक सर्व जीवराशिको गुणा करके गुणनफलसे अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें भाग देनेसे स्पर्धकान्तर होता है। अनन्तभागवृद्धिकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाओंसे असंख्यातभागवृद्धिकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ असंख्यातवें भाग अधिक हैं। उससे संख्यातभागवृद्धिकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ संख्यातवें भाग अधिक हैं । इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए । इसी प्रकार असंख्यातभागवृद्धिकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाओंसे असंख्यात लोकको गुणा करके गुणनफलसे अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें भाग देनेसे असख्यातभागवृद्धिरूप प्रक्षेपका स्पर्धकान्तर होता है। नीचेके स्पर्धकान्तरसे ऊपरके स्पर्धकान्तरमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे, नीचेसे ऊपरका स्पर्धकान्तर उतना ही गुणा होता है । इस असंख्यातभागवृद्धिस्थानसे ऊपर काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थान होते हैं। उनका कथन पहलेके अनन्तभागवृद्धिस्थानोंकी तरह जानना चाहिए। इतना विशेष है कि असंख्यातभागवृद्धिके स्पर्धकान्तरोंसे ऊपरके अनन्तभागवृद्धिरूप प्रक्षेपोंके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर अनन्तगुणे हीन होते हैं, तथा नीचेके काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तरोंसे ऊपरके काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक होते हैं। इसका कारण यह है कि असंख्यातभागवद्भिस्थानमें भागहारका प्रमाण जीवराशिका असंख्यातवां भाग है और अनन्तभागवधिमें भागहारका प्रमाण समस्त जीवराशि है, अत: भागहारके प्रमाणमें अन्तर होनेसे उक्त अन्तर पड़ता है। जैसे यदि . अन्तिम अनन्तानुभागवृद्धिस्थानका प्रमाण १६०००० कल्पना किया जावे तो उसमें असंख्यातके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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