SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ६१८. एदेसि बंधहाणाणं कारणभूदकसायुदयहाणाणं पि अवहाणकमो एरिसो चेव भागहार-गुणगारेहि ठाणसंखाए च भेदाभावादो । तेणेसा परूवणा अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणं पि हिरवयवा वत्तव्वा । एदाणि एवं विहाणेण परूविदबंधसमुप्पत्तियहाणाणि थोवाणि ति घेत्तव्यं । * हदसमुप्पत्तियाणि असंखेजगुणाणि । ६१६. एत्थ ताव हदसमुप्पत्तियहाणाणं सरूवपरूवणं कस्सामो। कत्तो एदेसि समुप्पत्ती ? विसोहिहाणेहिंतो ? काणि विसोहिहाणाणि १ बद्धाणुभागकल्पित प्रमाण दोका भाग देनेसे ८०००० पाता है। यह स्थानान्तर नीचेके स्थानान्तरोंसे कई गुणा है । तथा असंख्यातभागवृद्धिस्थानके कल्पित प्रमाण १६००००+ ८०००० = २४०००० में आगेका अनन्तभागवृद्धि युक्त स्थान लानेके लिये जीवराशिके कल्पित प्रमाण ४ का भाग देनेसे लब्ध ६०००० आता है। यह स्थानान्तर नीचेके अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके अन्तरसे अधिक है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये। दूसरे काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंसे अन्तिम स्थानमें असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो लब्ध आबे उसे सी स्थानमें जोड़ देनेसे दूसरा असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। इस प्रकार काण्डकप्रमाण असंख्यातभागवृद्धिस्थान होते हैं। काण्डकप्रमाण असंख्यातभागवृद्धिस्थानोंमेंसे जो अन्तिम असंख्यातभागवृद्धिस्थ न है उसके ऊपर पहलेकी तरह काण्डकप्रमाण अनन्तभागबुद्धिस्थान होते हैं। उनमेंसे अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसे उसीमें जोड़ देनेसे पहला संख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। इसके ऊपर काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थान होने पर असंख्यातभागवृद्धिस्थान है और काण्डकप्रमाण असंख्यातभागवृद्धिस्थान होनेपर दूसरा संख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। इस तरह काण्डकप्रमाण संख्यातभागवृद्धिस्थानोंके हो जानेपर ऊपर संख्यातभागवृद्धिस्थान विषयक अनन्तभागवृद्धिस्थानोंमें जो अन्तिम स्थान है उसमें उत्कृष्ट संख्यातका गुणा करनेसे जो लब्ध आवे उसे उसीमें जोड़ देनेसे पहला संख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है। उक्त क्रमसे काण्डकप्रमाण संख्यातगुणवृद्धिस्थानोंके हो जाने पर, ऊपर संख्यातगुणवद्धिविषयक अनन्तभागवृद्धिस्थानोंमेंसे अन्तके स्थानमें असंख्यात लोकका गणा करनेसे जो लब्ध आवे उसे उसी स्थानमें जोड़ देनेसे पहला असंख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है। इसी प्रकार आगेका विचार कर कथन करके षट्स्थानकी उत्पत्ति कहनी चाहिए। इस प्रकार बन्धसमुत्पत्तिक स्थानकी उत्पत्तिका सांगोपांग विचार किया। इस प्रकार यह बन्धसमुत्पत्तिकस्थानका कथन हुआ। ६६१८. इन बन्धस्थानों के कारणभूत कषायके उदयस्थानोंके भी अवस्थानका क्रम ऐसा ही है, क्योंकि दोनोंके भागहार, गुणकार और स्थानसंख्यामें कोई भेद नहीं है। अत: यह पूरा कथन अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानोंके विषयमें भी कहना चाहिये । इस प्रकार कहे गये ये बन्धसमुत्पत्तिक स्थान थोड़े हैं ऐसा सूत्रका अर्थ लेना चाहिये । * उनसे हतसमुत्पत्तिक स्थान असंख्यातगुणे हैं। ६६१९ यहाँ अब हतसमुत्पत्तिकस्थानोंके स्वरूपका कथन करते हैं । शंका-इन स्थानों की उत्पत्ति किनसे होती है ? समाधान-विशुद्धिस्थानासे। पा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy