SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ना० २२) अणुभागविहत्तीए सामित्तं १७९ खंडयउकीरणकालभंतरे संखेजसहस्सअणुभागखंडयाणं पदणविरोहादो। अणुसमओवट्टणाए अणुभागस्सेव हिदीए वि होदव्वं, एगसहावत्तादो । ण च एवं, तहाणुवलंभादो। * अणंताणुबंधीणमोघं । ६२६७. जहा ओघम्मि संजुत्तपढमसमए अणंताणुबंधीणं जहएणसामित्तं वुत्तं तथा एत्थ वि वतव्वं । * एवं सव्वत्थ णेदव्वं । $ २६८. एदेण वयणेण जइवसहाइरिएण एदस्स सुत्तस्स देसामासियत्तं जाणाविदं । संपहि एत्थुद्दे से उच्चारणा बुच्चदे ६२६६. सामित्ताणुगमो दुविहो—जहण्णओ उकस्सो चेदि । उक्कस्सए पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उकस्साहोना चाहिये। किन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर क्षपणावस्थामें एक स्थितिकाण्डकके उत्कीरण कालके भीतर संख्यात हजार अनुभाग काण्डकोंकापतन होनेमें विरोध आता है। तथा यदि स्थिति और अनुभागका एक स्वभाव है तो जिस प्रकार प्रति समय अनुभागका अपवर्तन घात होता है उस तरह स्थितिका भी होना चाहिए; क्योंकि दोनों एकस्वभाव हैं। किन्तु ऐसा होता नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता। विशेषार्थ-सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनुभागकाण्डकघात हुए बिना नहीं होता। और सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागका काण्डकघात दर्शनमोहके क्षपणके सिवा अन्यत्र होता नहीं तथा नरकगतिमें दर्शनमोहका क्षपण नहीं होता, अत: नरकमें सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता। इस पर यह शंका की गई कि सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिका काण्डकघात तो अन्य अवसरों पर भी होता है तब अनुभागका ही काण्डक घात क्यों केवल दर्शनमोहके क्षपणके समय ही होता है, अन्यत्र नहीं होता ? इसका समाधान किया गया कि स्थिति और अनुभाग दोनों दो जुदी चीजें हैं, अत: एकके होने पर दूसरेका होना अविनाभावी नहीं है। यहां इतना विशेष जानना चाहिये कि यद्यापि कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मरकर नरकमें जन्म ले सकता है किन्तु वह कृतकृत्य होनेसे पहले ही सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म कर लेता है, अत: नरकमें नहीं हो सकता। ॐ अनन्तानुबन्धीके जघन्य अनुभागका स्वामित्व ओघके समान कहना चाहिये । ६२६७. जैसे ओघमें अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होनेके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धीके जघन्य अनुभागका स्वामित्व कहा है वैसा ही नरकमें भी कहना चाहिए। * इसी प्रकार सब मार्गणाओंमें मोहनीयकी प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके स्वामित्वको कहना चाहिए । ६ २६८. इस कथनसे आचार्य यतिवृषभने यह बतलाया है कि यह सूत्र देशामर्षक है। अब इस विषयमें उच्चारणाको कहते हैं। २६९. स्वामित्वानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy