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________________ .१८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ णुभागसंतकम्मं कस्स ? अएणदरस्स जो तप्पाओग्गजहण्णाणुभागसंतकम्मिओ तेण उक्कस्साणुभागे बंधे जाव तं ण हणदि ताव सो होज्ज एइंदिओ वा वेइंदिओ वा तेइंदिओ वा चरिंदिनो वा सरणी वा असएणी वा पज्जत्तो वा अपज्जत्तो वा संखेजवस्साउो वा असंखेज्जवस्साउओ वा। असंखेज्जवस्साउअतिरिक्ख-मणुस्से मणुस्सोववादियदेवे च मोत्तण । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्क० कस्स ? अण्णदरस्स संतकम्मियस्स दसणमोहवरखवयं मोत्तण। २७०. आदेसेण गैरइएसु छब्बीसंपयडीणमुक्क० कस्स ? अण्णद. जेण उक्कस्साणुभागो पबद्धो सो जाव तएण हणदि ताव । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघं । एवं पढमाए तिरिक्व-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचि तिरि०पज्ज०-देव सोहम्मीसाणादि जाव सहस्सारकप्पो त्ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मामिच्छत्तस्सेव सम्मत्तस्स पत्थि अणुकस्ससंतकम्मं । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-पंचितिरि०-- उत्कृष्ट अनुभागसत्कम किसके होता है ? ऐसे किसी भी जीवके होता है जो अपने योग्य जघन्य अनुभागकी सत्तावाला जीव उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक वह एकेन्द्रिय हो, द्वीन्द्रिय हो, तेइन्द्रिय हो, चौइन्द्रिय हो, संज्ञी हो, असंज्ञी हो, पर्याप्त हो, अपर्याप्त हो, संख्यात वर्षकी आयुवाला हो या असंख्यात वर्षकी आयुवाला हो; उसके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। किन्तु असंख्यात वर्षकी आयुवाले निर्यञ्चों और मनुष्योंको तथा जहांके देव केवल मनुष्योंमें ही उत्पन्न होते हैं उन देवोंको छोड़कर अन्य सबके यह उत्कृष्ट अनु पागसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? दर्शनमोहके क्षपकको छोड़कर उनकी सत्तावाले किसी भी जीवके होता है। विशेषार्थ-अपने अपने योग्य जघन्य अनुभागसत्कर्मवाला जो जीव उत्कृष्ट अनुभागका बध करके जब तक उसका घात नहीं करता तब तक वह किसी भी पर्याचमं संख्यातवर्ष या असंख्यात वर्षकी आयुके साथ जन्म ले उसके मोहनीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग रहता है। किन्तु भोगमूमिज तिर्यञ्च और मनुष्य तथा आनतादिक कल्पके देवोंमें मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका सत्व नहीं होता, इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए। पर यह कथन मोहनीयकी २६ प्रकृतियोंकी अपेक्षासे किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षासे कुछ विशेषता है। बात यह है कि इन दोका बन्ध नहीं होता, अत: इनकी सत्तावालेके इनका उत्कृष्ट अनुभाग रहता है। केवल दर्शनमोहके क्षपकको छोड़ देना चाहिये, क्योंकि उसके इनका जघन्य अनुभाग भी होता है और बादको ये नष्ट हो जाती हैं। आंघ की ही तरह आदेश से भी जानना चाहिए । उसमें जो विशेषता है सो मूलमें बतलाई ही है। २७०. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जिसने उत्कृष्ट अनुभागका बंध किया वह जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक उस जीवके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व ओघके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवो, सामान्य तिर्यञ्च,, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्च. न्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म-ईशान स्वर्गसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिये । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार स्वामित्व है। इतना विशेष है कि वहां सम्यग्मिथ्यात्वके समान सम्यक्त्वका भी अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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