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________________ १८१ गा० २२] अणुभागविहत्तीए सामित्तं अपज्ज०-मणुसअपज्ज०--भवण०--वाण--जोदिसिए त्ति । णवरि पंचिंदियतिरिक्ख-- अपज्ज.--मणुसअपज्ज० उकस्साणुभागसंतकम्मिओ तिरिक्खो मणुस्सो वा अप्पिदअपज्जत्तएसु उप्पज्जिदूण जाव तं ण हणदि ताव सो उक्कस्साणुभागस्स सामिओ। ___२७१. मणुस-मणुसपज्ज०-मणुसिणी० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्कस्साणु० कस्स ? अण्णद० उक्कस्साणुभागं बंधिदूण जाव ण हणदि ताव । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्साणुभाग. कस्स ? दसणमोहक्खवगं मोत्तण सव्वस्स संतकम्मियस्स । आणदादि जाव उवरिमगेवज्जे ति मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० कस्स ? अण्णदरो जो दव्वलिंगी तप्पाओग्गउकस्साणुभागसंतकम्मेण उववण्णो सो जाव ण हणदि ताव उक्कस्साणुभागसंतकम्मिओ । सम्मत्त० ओघं । सम्मामि देवोघं । अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति मिच्छत्त--सोलसक० --णवणोक० उक्क० कस्स ? अण्णद० वेदयसम्माइहिस्स उकस्साणुभागसंतकम्मेण उववण्णल्लयस्स जाव ण हणदि ताव । सम्मत्त० ओघं । सम्मामि० देवोघं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । २७२. जहण्णए पयदं। दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण। ओघेण मिच्छत्तअटक. जह० अणु० संतकम्म कस्स ? अण्णद० सुहुमेइंदियस्स कदहदसमुप्पत्तियपञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला तिर्यञ्च अथवा मनुष्य विवक्षित अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक वह उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका स्वामी है। ६ २७१. सामान्य मनुष्य, मनुष्य पयोप्त और मनुष्यिनीमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, और नव नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जो उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक उसके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? दर्शनमोहके क्षपकको छोड़कर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले सब जीवोंके होता है। आनत स्वर्गसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, और नव नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जो द्रव्यलिङ्गी मुनि अपने योग्य उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मको लेकर वहां उत्पन्न हुआ है वह जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक उसके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका स्वामी ओघकी तरह समझना चाहिए। सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके साथ उत्पन्न हुआ जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव जब तक उसका घात नहीं करता तब तक उसके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व ओघकी तरह है। सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके स्वामित्वका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिए। २७२. अब जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जिस सूक्ष्म एकेन्द्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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