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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ क्खवणाभावादो दं घडदि त्ति णासंकणिज्जं दंसणमोहणीयं मणुस्सेसु खविय कदकरणिजो होदूण रइएसुप्पराणस्स जहण्णाणुभागुवलंभादो । जहा सम्मत्तं पुव्वबद्धदीहाउदि छिंदि देखूणसागरोवममेत्तं संखेज्जवाससेचं वा करेदि तहा णिरआउस्स णिम्मूलविणासं किरण करेदि १ ण, तस्स तहाविहसत्तीए अभावादो । ण च सहाओ पडिबोहणारुहो, अइप्पसंगादो | १७८ * सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं पत्थि । $ २६६. कुदो ? दंसणमोहक्खवणं मोत्तूण सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमण्णत्थ अणुभागखंडयघादाभावादो । पढमसम्मत्तप्पत्तीए अणताणुबंधीणं विसंजोयणाए चारित्तमाहणीयस्स उवसामणाए च सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणं द्विदिखंडयघादे संते कधमणुभागखंडयस्सेव घादो णत्थि : ण, भिण्णजाइरणेण एगसहावत्तविरोहादो । अविरोहे वा अणुभाघादे संतेणियमेण द्विदिघादेण वि होदव्वं । ण च एवं खवणाए एगहिदि शंका- नरकगति में दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं होता है, अतः यह स्वामित्व नरक में घटित नहीं होता ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि मनुष्योंमें दर्शनमोहनीयका क्षय करके, कृतकृत्य होकर जो नारकियों में उत्पन्न होता है उसके सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग पाया जाता है। शंका- जैसे सम्यक्त्वकी पहले बांधी हुई लम्बी स्थितिका छेदन करके उसे कुछ कम सागर प्रमाण अथवा संख्यातवर्ष प्रमाण करता है वैसे ही बांधी हुई नरकायुका निर्मूल विनाश क्यों नहीं करता ? समाधान- नहीं, क्योंकि उसमें इस प्रकारकी शक्ति नहीं है । यदि कोई कहे कि शक्ति क्यों नहीं है तो उसका यह प्रश्न ठीक नहीं है क्योंकि शक्तिका होना न होना पदार्थों का स्वभाव सिद्ध धर्म है और स्वभाव प्रतिबोधनके अयोग्य है, उसमें इस प्रकारका तर्क नहीं किया जा सकता कि ऐसा क्यों है ? यदि स्वभाव के विषय में भी इस प्रकारका तर्क किया जाने लगे तो अतिप्रसंग दोष उपस्थित होगा । वस्तुमात्रके स्वभाव के विषय में इस प्रकारका तर्क किया जाने लगेगा । * सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं है ? $ २६६. शंका - सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म क्यों नहीं है ? समाधान- क्योंकि दर्शनमोहके क्षपणको छोड़कर अन्यत्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभागकाण्डकघात नहीं होता । और नरकगतिमें दर्शनमोहका क्षपण नहीं होता । इसलिए वहां सम्यग्मिध्यात्वके जघन्य अनुभाग सत्कर्मका निषेध किया है । शंका- प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन और चरित्रमोहनीयकी उपमशन के समय जब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिकण्डकघात होता है तो वहां अनुभागकाण्डकघात ही क्यों नहीं होता ? समाधान- नहीं, क्योंकि स्थिति और अनुभाग भिन्न जातीय हैं, श्रतः दोनोंका एक स्वभाव होने में विरोध है । यदि विरोध न हो तो अनुभागका घात होने पर नियमसे स्थितिका घात भी १. श्रा० प्रतौ खवणाए हिदि- इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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