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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए सामित्तं १७७ * एवं बारसकसाय-णवणोकसायाणं । $ २६३. जहा मिच्छत्तस्स असएिणपच्छायदहदसमुप्पत्तियकम्मेण आगदस्स जहएणसामित्तं परूविदं तहा एदासि पि पयडीणं परूवेदव्वं, अविसेसादो । * सम्मत्तस्स जहणणाणुभागसंतकम्मं कस्स ? २६४. सुगमं । * चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स। $ २६५. सुगममेदं सुत्तं, ओघम्मि परूविदत्तादो। णिरयगईए दंसणमोहणीयरहता है यह बतलानेके लिये किया है। विशेषार्थ-जा असंज्ञी पञ्चद्रिय पहले नरकायुका बन्ध करके पीछे सत्तामें स्थित मिथ्यात्वके अनुभागका घात कर डालता है वह जब मरकर नरकमें जन्म लेता है तो उसके मिथ्यात्व का जघन्य अनुभागसत्कर्म तब तक होता है जब तक वह मिथ्यात्वके सत्तामें स्थित अनुभागसे अधिक अनुभागका बन्ध नहीं करता। जब वह अधिक अनुभागबन्ध करने लगता है तो फिर उसके जघन्य अनुभाग नहीं रहता। अत: नरकमें मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागकी सत्ता अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहती है । इस पर एक शङ्का यह की गई है कि सत्तामें स्थित अनुभागका घात विशुद्ध परिणामोंसे होता है, अत: विशुद्ध परिणामवाला मरकर नरकमें कैसे उत्पन्न हो सकता है ? इसका यह समाधान किय गया है कि पहले तो वह जीव नरक की आयु बांध चुकता है, अत: जब भुज्यमान आयु क्षीण होती है तो योग्य संक्लेश परिणमोंसे मरकर नरकमें जन्म लेता है। किन्तु इतना स्मरण रखना चाहिये कि उसके संक्लेश परिणम ऐसे नहीं होते जिनसे सत्तामें स्थित मिथ्यात्वके अनुभागसे अधिक अनुभागबन्ध हो। दूसरी शंका यह की गई है कि असैनी पञ्चन्द्रिय मिथ्यादृष्टिके परिणाम अधिक विशुद्ध होते हैं, अतः उससे उसके जघन्य अनुभागसत्कर्म अधिक हीन होंगे, इसलिये सैनी मिथ्यादृष्टिको नरकम उत्पन्न क्यों नहीं कराया। सो इसका समाधान यह किया गया है कि संज्ञी मिथ्यादृष्टिके जघन्य अनुभाग सत्कर्मसे असंज्ञी पञ्चन्द्रियका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है और इसका सबूत यह है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्क की विसंयोजना कर देनेवाले सम्यग्दृष्टि नारकीमें मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म न बतल्लाकर असंज्ञी पर्यायसे आकर नरकमें जन्म लेनेवाले मिथ्यादृष्टिके उसका जघन्य अनुभाग बतलाया है, अत: सिद्ध है कि संज्ञी मिथ्याष्टिसे असंज्ञी पञ्चेन्द्रियका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है। * इसी प्रकार बारह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य अनुभागके स्वामित्वका कथन करना चहिये ।। २६३. जैसे हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले असंज्ञी जीवके नरकमें उत्पन्न होने पर उसके मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागको स्वामित्वका कथन किया है वैसे ही इन प्रकृतियोंका भी कथन कर लेना चाहिये, क्यों कि उससे इनमें कोई विशेषता नहीं है। * सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? २६४. यह सूत्र सुगम है। * दर्शनमोहनीयका क्षय करनेवालेके अन्तिम समयमें होता है। २६५. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि ओघ प्ररूपणामें इसका कथन कर आये हैं। २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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