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________________ १७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ उप्पज्जदि। पुणो सो विमुद्धो संतो कथं गेरइएमु समुप्पज्जदे ?ण, पुव्वबद्धणिरयाउअस्स संकिलेस-विसोहिअद्धासु कमेण परियट्टतस्स विसोहिअद्धाए झीणाए तप्पाअोग्गसंकिलेसेणाणुभागबंधवुड्डीए विणा खीणभुजमाणाउअस्स णेरइएमु उप्पत्तिं पडि विरोहाभावादो। जदि एवं तो सएिणपंचिंदिओ सव्वविमुद्धो जहण्णाणुभागसंतकम्मित्रो मिच्छादिही किरण उप्पाइदो ?ण, सएिणमिच्छाइहिजहण्णाणभागसंतकम्मं पेक्खिदूण असएिणजहएणाणभागसंतकम्मस्स अणंतगुणहीणतादो। तं कुदो णव्वदे ? विसंजोइदअणंताणुबंधिचउक्कम्मि जेरइयसम्माइद्विम्मि मिच्छत्ताणुभागस्स जहएणसामित्तमदादृण असएिणपच्छायदमिच्छादिहिम्मि सामित्रं पदुप्पाययसुत्तादो। ण च हदसमुप्पचियकम्मो विसुद्धो चेव होदि ति णियमो, संकिलिहस्स वि सगजहण्णाणुभागसंतकम्मादो' हेहा बंधमाणस्स हदसमुप्पचियकम्म पडि विरोहाभावादो। जाव संतकम्मस्स हेट्टा बंधदि तावे त्ति किम कालणिद्दे सो कदो ? जहएणाणुभागसंतकम्मेण सह गेरइएम अंतोमुहुत्तमच्छदि ति जाणावण । हुआ वह हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला जीव नरकमें कैसे उत्पन्न होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि जिसने पहले नरकायुका बंध कर लिया है वह जीव क्रमसे संक्लेश और विशुद्धिके काल में परिभ्रमण करता हुआ अर्थात् संक्लेशसे विशुद्धिमें और विशुद्धिसे संक्लेशमें परिवर्तन करता हुआ विशुद्धिकालके क्षीण हो जाने पर तत्प्रायोग्य संक्लशवश अनुभागबन्धमें वृद्धि हुए बिना भुज्यमान आयुके क्षीण होने पर नरकगतिमें उत्पन्न होता है इसमें कोई विरोध नहीं है। शंका-यदि ऐसा है तो सबसे विशुद्ध और जघन्य अनुभागसत्कर्मकी सत्तावाले संज्ञी पंञ्चेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिको क्यों नहीं उत्पन्न कराया । अर्थात् असंज्ञीको नरकमें उत्पन्न कराकर जो उसे मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका स्वामी बतलाया है उसकी अपेक्षा संज्ञीको नरकमें उत्पन्न कराकर उसके जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं बतलाया। - समाधान-नहीं, क्योंकि संज्ञी मिथ्यादृष्टिके जघन्य अनुभागसत्कर्मकी अपेक्षा असंज्ञीका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना ? .. समाधान-अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर चुकनेवाले नारक सम्यग्दृष्टिमें मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका स्वामित्व न बतलाकर असंज्ञी पर्यायसे आये हुए मारक मिथ्यादृष्टिमें स्वामित्व बतलानेवाले सूत्रसे जाना। तथा हतसमुत्पत्तिककर्मवाला जीव विशुद्ध ही होता है ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि अपने जघन्य अनुभागसत्कर्मसे कम बाँधनेवाले संक्लिष्ट जीवके भी हतसमुत्पत्तिककर्म हो सकता है इसमें कोई विरोध नहीं है। शंका-'जब तक सत्कर्मसे कम बाँधता है तभी तक' इस प्रकार कालका निर्देश क्यों किया है ? समाधान-जघन्य अनुभागसत्कर्मके साथ जीव नारकियोंमें अन्तर्मुहूर्त काल तक १ श्रा० प्रलौ सियमो संकिलेखस्स विसयजहएमाणुभागसंतकम्मादो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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