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________________ गा० २२) अणुभागविहत्तीए अणियोगदारणामाणि १५५ तिहाणियं चउहाणियं वा । एवं मणुसतिय० । णवरि मणुसपज्जत्तेसु इत्थिवेद० जहण्ण. वेढाणियं । अजहण्ण. वेहाणियं तिहाणियं चउहाणियं वा । मणुसिणीसु पुरिस०णवंस० ज० वेढाणियं । अज० वेढाणियं तिहाणियं चउहाणियं वा । ६ २२३. आदेसेण गैरइएसु छव्वीसं पयडीणं ज. विहाणियं। अज० तिहाणियं चउहाणियं वा । सम्मत्त० ज० एगहाणियं । अज० एगहाणियं विहाणियं वा । सम्मामि० ओघं । णवरि जहण्णाजहण्णभेदो गत्थि। एवं पढमपुढवि-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचितिरि०पज्ज०-देव--सोहम्मादि जाव सहस्सारकप्पो ति । विदियादि जाव सत्तमि ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० जहण्णं णत्थि । एवं जोणिणी-पंचि०तिरि०अपज्ज.-मणुसअपज्ज०-भवण-वाण-जोदिसिओ ति। आणदादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति छव्वीसं पयडीणं ज० अज० वेढाणियं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघभंगो। एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । हाणसण्णा समत्ता। २२४. उत्तरपयडिअणुभागविहत्तीए तत्थ इमाणि अणियोगद्दाराणि । तं जहा-- सव्वाणुभागविहत्ती णोसव्वाणुभागविहत्ती उकस्साणुभागविहत्ती अणुकस्साणुभागविहत्ती अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक है । अजघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनिय में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि मनुष्यपर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म विस्थानिक है। अजघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है। मनुष्यनियों पुरुषवेद और नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है । अजघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु:स्थानिक है। २२३. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है। अजघन्य अनुभागसत्कर्म त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है। सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक है। अजघन्य अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक और द्विस्थानिक है। सम्यग्मिथ्यात्व का ओघके समान जानना चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ उसमें जघन्य और अजघन्यका भेद नहीं है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिका जघन्य भेद नहीं है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपयोप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्यातिषियोंमे जानना चाहिए। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य अनुभाग सत्कर्म द्विस्थानिक है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। स्थानसंज्ञा समाप्त हुई। १२२४. उत्तरप्रकृति अनुभागविभक्तिमें ये अनुयोगद्वार होते हैं । यथा-सर्वानुभागविभक्ति नोसर्वानुभागविभक्ति, उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति, अनुस्कृष्ट अनुभागविभक्ति, जघन्य अनुभागविभक्ति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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