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________________ २९४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ भागो । एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अप्पद० पत्थि। ५०२. आदेसण गेरइएमु छब्बीसंपयडीणं भुज० अवहि० सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमवहि० सव्वदा । छब्बीसंपयडीणमप्पद० छण्हमवत्त० ज० एगस०, उक्क. आवलि० असंखे०भागो । सम्म० अप्पद० ओघं । एवं पढमपुढवि०-पंचिंदियतिरिक्खपंचितिरि०पज०-देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो त्ति । विदियादि जाव सत्तमि ति एवं चेव । णवरि सम्म० अप्पद० णत्थि । एवं जोणिणि--भवण०--वाण-जोदिसिए त्ति । पंचि०तिरि० अपज्ज० अठ्ठावीसंपयडीणमप्पप्पणो पदवि० णेरइयभंगो । ५०३. मणुसतिएमु छब्बीसंपयडीणं तिण्णिपदवि० णेरइयभंगो। णवरि चदुसंज०-पुरिस० अप्पद० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्म०-सम्मामि० अप्प०अवहि० ओघं । छण्हमवत्तव्व० ज० एगस०, उक० संखेज्जा समया। णवरि मणुसपज्ज० मिच्छ०-बारसक०-अहणोक० अप्पद० ज० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चो में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्ति उनमें नहीं होती। विशेषार्थ-ऊपर नाना जीवो की अपेक्षा विभक्तियो का काल बतलाया है। ओघसे सम्यक्त्व प्रकृति की अल्पतर विभक्तिवालों का काल जघन्यसे एक समय है । जैसे अनेक जीवों ने दर्शनमोहके क्षपण कालमें एक साथ एक समयके लिये सम्यक्त्व की अल्पतरविभक्ति की। इसी प्रकार उत्कृष्ट काल भी समझना । ५०२. आदेशसे नारकियों में छब्बीस प्रकृतियो की भुजगार और अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका काल सर्वदा है। छब्बीस प्रकृतियों की अल्पतर विभक्तिका और छह प्रकृतियों की अवताव्य विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका काल ओघकी तरह है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार तकके देवो में जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियो में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि वहाँ सम्यत्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं होती। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्कदेवो में जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तको में अट्ठाईस प्रकृतियों की अपनी अपनी विभक्तियों का काल नारकिया के समान है। ६५०३. सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें छब्बीस प्रकृतियों की तीन विभक्तियों का काल नारकियो की तरह है। इतना विशेष है कि चार संज्वलन और पुरुषवेदकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका काल ओघकी तरह है । छह प्रकृतियों की प्रवक्तब्य विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इतना विशेष है कि मनुष्यपर्याप्तको में मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायों की अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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