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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए भुजगारे अंतरं २९५ एवं मणुसिणी० । णवरि पुरिस० अप्प० ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया । मणुसअपज्ज. छब्बीसंपयडीणं भुज०-अवहि० सम्म०-सम्मामि० अवहि० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। छब्बीसंपय० अप्प० णेरइयभंगो। ५०४. आणदादि जाव णवगेवजा त्ति अट्ठावीसंपयडीणमवहि० सव्वदा । छब्बीसंपय० अप्प० छण्हमवत्तव्य० ज० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे० भागो । सम्म० अप्पद० ओघं । अणंताणु०४ भुज० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अणुद्दिसादि जाव अवराइदो त्ति एवं चेव । णवरि छण्हमवत्त० अणंताणु०४ भुज. पत्थि । सबहे छब्बीसंपयडीणमप्प० ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया। अवहि० सव्वदा । सम्म० अप्प० ओघं । सम्म०-सम्मामि० अवहि० सव्वदा । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ! ५०५. अंतराणु० दुविहो णिह'सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण छब्बीसंपयडोणं तिण्णिपदवि० सम्म० सम्मामि० अवहि० त्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा । दोण्हमवत्त० अणंताणु०चउक्क० अवत्त ० अंतरं ज० एगस०, उक्क० चउवीसं अहोरत्ते सादिरेगे। मनुष्यिनियों में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि पुरुषवेदकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। मनुष्य अपयोप्तको में छब्बीस प्रकृतियो की मुजकार और अवस्थितविभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। छब्बीस प्रवृतियों की पाल्पतर विभक्तिका काल नारकियो के समान है।। ५०४. आनतसे लेकर नवयक तकके देवों में अट्ठाईस प्रकृतियो की अवस्थित विभक्तिका काल सर्वदा है। छब्बीस प्रकृतियो की अल्पतरविभक्तिका और छह प्रकृतियों की अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सम्यात्वकी अल्पतर विभक्तिका काल ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजकारविभक्तिका जधन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि वहाँ छह प्रकृतियों की अवक्तव्य विभक्ति और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार विभक्ति नहीं होती। सर्वार्थसिद्धि में छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अवस्थित विभक्तिका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व की अल्पतर विभक्तिका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका काल सर्वदा है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। ५.५. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन विभक्तियोंका और सम्यक्त्व तथा सम्यग्भिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छ मास है । इन दोनोंकी तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी प्रवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक चौबीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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