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________________ २९६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [अणुभागविहत्ती ४ ___$ ५०६. श्रादेसेण णेरइएसु छब्बीसंपयडीणं भुज०-अवहि० सम्म०-सम्मामि० अवहि० णत्थि अंतरं । अप्प० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्म० अप्पद० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं । सम्मामि० अप्पद० णत्थि । छण्हमवत्तव्व० ओघं । एवं पढमपुढवि० पंचिंदियतिरिक्वदोणि देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्म० अप्पद० णत्थि । एवं पंचिं०तिरि०जोणिणी-भवण०-वाण-जोइसिए ति । ५०७. तिरिक्व ० छब्बीसंपयडीणमोघं । सम्म०--सम्मामिच्छत्ताणं णेरइयभंगो । पंचिंदियतिरिक्वअपज्ज. छब्बीसंपयडीणं तिण्णिपदवि० सम्म०-सम्मामि० अवहि० णेरइयभंगो। मणुसतिण्णि छब्बीसंपयडीणं णेरइयभंगो । सम्म०--सम्मामि० ओघं । णवरि मणुसिणी० सम्म०-सम्मामि० अप्प० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । मणुसअपज्ज. छब्बीसंपयडीणं तिण्णि पदवि० सम्म०-सम्मामि० अवहि० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। ५०८. आणदादि जाव णवगेवज्जा ति छब्बीसंपयडीणमप्पद० ज० एगस०, रात दिन है। ६५.६. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर नहीं है। अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व प्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्ति वहाँ नहीं होती। छह प्रकृतियोंकी अवक्तव्य विभक्तिका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि वहाँ सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं होती। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंमें जानना चाहिए। ६५.७. सामान्य तिर्यञ्चोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग ओघकी तरह है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग नारकियोंके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकामें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन विभक्तियोंका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका भङ्ग नारकियोंके समान है। सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघके समान है । इतना विशेष है कि मनुष्यनियों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीनों विभक्तियोंका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पत्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। ६५०८. अानतसे लेकर नवप्रैवेयक तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात रात दिन है। अवस्थितविभक्तिका अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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