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________________ २९३ गा०२२) अणुभागविहत्तीए भुजगारे कालो जोदिसि० एवं चेव । णवरि सगपोसणं। सम्म० अप्पद० णत्थि । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारो ति अहावीसं पयडीणं सव्वपदवि० लोग० असंखे० भागो अहचोइस देसूणा । णवरि सम्म अप्प० खेत्तं । आणदादि जाव अच्चुदे ति अहावीसं पयडीणं सव्वपदवि. सगपोसणं। सम्म० अप्पद० खेत्तं । उवरि खेत्तभंगो । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । ५०१. कालाणु० दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसं पयडीणं तिएिणपदवि० सम्म०-सम्मामि० अवहि० सव्वदा। सम्म० अप्पद० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मामि० अप्पद० ज० एगस०, उक्क० सखेज्जा समया । सम्मत-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० अवतव्व० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार साधर्म और ईशान स्वर्गमें जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए । सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्ति वहाँ नहीं होती। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवो में अट्ठाईस प्रकृतियों की सब विभक्तिवाले देवो ने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और चौदह राजमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। आनत कल्पसे लेकर अच्युतकल्प तकके देवों में अट्ठाईस प्रकृतियो की सब विभक्तिवालो का स्पर्शन अपने अपने स्पर्शनके समान है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतर विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अच्युत स्वर्गसे ऊपर स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिए। विशेार्थ ओघसे अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सम्यग्मिथ्यात्व की प्रवक्तव्य विभक्तिवालो का स्पर्शन जो आठ बटे चौदह राजु कहा है तो देवगति की अपेक्षा समझना। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थित विभक्तिवालो ने अतीत कालमें सर्वलोक स्पर्श किया है, विहारवत्स्वस्थान और विक्रिया पदके द्वारा वर्तमानमें लोकका असंख्यातवाँ भाग और अतीत कालमे कुछ कम आठ बटे चौदह राजू स्पर्श किया है। आदेशसे नारकिया में छब्बीस प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिवाले जीवो ने वर्तमान कालमे लोकका असंख्यातवाँ भाग तथा अतीत कालमें लोकका असंख्यातवाँ भाग और मारणान्तिक तथा उपपाद पदके द्वारा कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवोंमे छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिवालो का तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवालो का स्पर्शन वर्तमान की अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग और अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजु तथा मारणान्तिक पदके द्वारा कुछ कम नौ बटे चौदह राजू है। इतना विशेष है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेद की भुजगार विभक्तिवालो ने तथा छह प्रकृतियों की प्रवक्तव्य विभक्तिवालो ने अतीत कालमे कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार शेष स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। ६५.१ कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियों की तीन विभक्तियों का और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभका काल सर्वदा है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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