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________________ गा०२२] अणुभागविहत्तीए द्वाणपरूवणा ३४१ बुडीए विसोही वि सुहकम्माणुभागवुड्डीए कारणं तो वि ण लोगपूरणमहिटियसजोगिकेवलिस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्मं संभवइ, चरिमसमयसुहुमसांपराइएण बद्धवेयणीयहिदीए वारसमुहुत्तमेत्ताए पुव्वकोडिअवटाणाभावादो ? ण, चिराणहिदीए पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्ताए अवहिदपरमाणूणं बज्झमाणाणुभागम्मि तिरिच्छेण उक्कड्डिदाणं तत्तियमेत्तकालमवहाणदंसणादो। शंका-यद्यपि कषाय अशुभ प्रकृतियों के अनुभागकी वृद्धिम कारण है और विशुद्धिरूप परिणाम शुभ प्रकृतियों के अनुभागकी वृद्धि में कारण है तो भी लोकपूरण समुद्घातमें वर्तमान सयोगकेवलीके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका होना संभव नहीं है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायिक जीव अन्तिम समयमें वेदनीय कर्मकी जो बारह मुहूर्तप्रमाण स्थिति बाँधता है, वह स्थिति एक पूर्वकोटि काल तक नहीं ठहर सकती। समाधान नहीं, क्यो कि पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण पुरानी स्थितिमें जो परमाणु मौजूद हैं उनके बध्यमान अनुभागमें आकर तिर्यक् रूपसे उत्कर्षित होने पर उतने काल तक अवस्थान देखा जाता है । विशेषार्थ-एक जीवमें एक समयमें कर्मका जो अनुभाग पाया जाता है उसे स्थान कहते हैं । वह स्थान दो प्रकारका है.--अनुभागबन्धस्थान और अनुभागसत्कर्मस्थान । बन्धसे जो अनुभागस्थान उत्पन्न होते हैं उन्हें अनुभागबन्धस्थान या बन्धसमुत्पत्तिक स्थान कहते हैं। सत्तामें स्थित अनुभागका घात करनेपर जो स्थान उत्पन्न होते हैं उनका अनुभाग यदि बंधनेवाले अनुभागके बराबर ही होता है तो उन्हें भी बन्धसमुत्पत्तिक स्थान ही कहते हैं, क्योंकि उनका अनुभाग बध्यमान अनुभागस्थानके बराबर है। किन्तु जो अनुभागस्थान घातसे ही उत्पन्न होते हैं, बंधसे • नहीं, तथा जिनका अनुभाग घाता जाकर बंधनेवाले अनुभागसे कम होता है, अर्थात् अष्टांक और उर्वकके बीचमें नीचेके उर्वकसे अनन्तगुणा और ऊपरके अष्टांकसे अनन्तगुणा हीन होता है उन्हें अनुभागसत्कर्मस्थान कहते हैं। उन्हींका दूसरा नाम हतसमुत्पत्तिक स्थान है । हतसमुत्पत्तिक स्थानके अनुभागको भी घातने पर जो स्थान उत्पन्न होते हैं उन्हें हतहतसमुत्पत्तिक स्थान कहते हैं । इन तीनों स्थानोंमें बन्धसमुत्पत्तिक स्थान सबसे थोड़े हैं। क्यों सबसे थोड़े हैं यह बतलानेके लिए ही आगेका कथन किया गया है। बन्धसमुत्पत्तिक स्थानों में सबसे जघन्य स्थान सूक्ष्म निगोदिया जीवका अनुभागस्थान है । यद्यपि यह स्थान घातसे उत्पन्न होता है तथापि यह बन्धस्थानके समान है, क्योंकि इसके ऊपर एक प्रक्षेपाधिक बन्ध होनेपर अनुभागकी जघन्य वृद्धि होती है और अन्तर्मुहूर्तके द्वारा उसीका काण्डकघातके द्वारा घात किये जाने र जघन्य हानि होती है। यदि सूक्ष्म निगोदियाका जघन्य अनुभास्थान बन्धस्थानके समान न होता तो इतनी जघन्य वृद्धि और हानि नहीं होती, क्योंकि बन्धके बिना वृद्धि नहीं होती। शायद कहा जाय कि जघन्य स्थानके ऊपर एक प्रक्षेप वृद्धि क्यों नहीं होती तो इसका समाधान इस प्रकार है कि घात सत्त्वस्थान बन्धसदृश अष्टांक और उर्वकके बी५में नीचे के उपकसे अनन्तगुणा और ऊपरके अष्टांकसे अनन्तगुणा हीन होता है। इसके ऊपर यदि विशुद्र जघन्य वृद्धिको लेकर भी बन्ध हो तो भी ऊपरके अष्टांकप्रमाण ही बन्ध होता है, अत: घात सत्वस्थानके ऊपर अनन्तगुणवृद्धि ही होती है अनन्तभागवृद्धि नहीं होती। तथा हानिमें भी अनन्तगुणहानि ही होती है, अनन्तभागहानि नहीं होती। अत: सूक्ष्म निगोदियाका जघन्य स्थान सत्त्वस्थान नहीं है किन्तु बन्धस्थान है, इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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