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________________ ( ७ ) हैं । श्रघाति कमोंमें स्थानसंज्ञाके चार भेद तो किये जाते हैं पर उनके नाम अपने अवान्तर भेदोंके साथ पुण्यकर्म और पापकर्मके भेदसे अन्य हैं । मोहनीय कर्मके कुल भेद अट्ठाईस हैं । उनकी अपेक्षा संज्ञाका विचार इस प्रकार है- सम्यक्त्व प्रकृतिके जितने देशघाति स्पर्धक हैं वे सब सम्भव हैं । सम्यग्मिथ्यात्वके प्रथम सर्वधाति स्पर्धकसे लेकर दारु समान स्पर्धकोंके अनन्तवें भागतक ही स्पर्धक उपलब्ध होते हैं । मिध्यात्वके जहाँ सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तिम स्पर्धक समाप्त होता है वहाँ से लेकर श्रागेके सब सर्वधाति स्पर्धक पाये जाते हैं। चार संज्वलनों को छोड़कर शेष बारह कषायोंके द्विस्थानिक सर्वधाति स्पर्धकसे लेकर श्रागेके सब स्पर्धक होते हैं । चार संज्वलन और नौ नोकपायोंके देशघाति और सर्वघाति सब स्पर्धक होते हैं । यहाँ मिथ्यात्वादि कर्मोंके अनुभागस्पर्धक यद्यपि श्रागे अन्ततकके कहे हैं फिर भी उनमें तारतम्य है जिसका विशेष ज्ञान महाबन्धके अल्पबहुत्वसे कर लेना चाहिए। इस प्रकार इन प्रकृतियोंकी स्पर्धक रचनाका परिज्ञान करके इनमें घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञाका ऊहापोह कर लेना चाहिए । खुलासा इस प्रकार है -- मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य चारों प्रकारका अनुभाग सर्वघाति ही होता है, क्योंकि इन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभाग भी सर्वधाति होता है। यहां छह नोकषाथों atra और अनुस्कृष्ट अनुभाग भी चूर्णिसूत्रकारने विवक्षाभेदसे सर्वधाति स्वीकार किया है। शेष रहीं चार संज्वलन और तीन वेद ये सात प्रकृतियाँ सो इनका उत्कृष्ट अनुभाग सर्वधाति ही होता है, क्योंकि वह चतुःस्थानिक होता है । अनुत्कृष्ट अनुभाग सर्वधाति और देशघाति दोनों प्रकारका होता है, क्योंकि इसमें एकस्थानिक जघन्य श्रनुभाग भी सम्मिलित है। तथा इनका जघन्य अनुभाग देशघाति होता है, क्योंकि area में अपने अपने योग्य स्थानमें वह एकस्थानिक ही उपलब्ध होता है । तथा इनका अजघन्य अनुभाग सर्ववाति और देशवाति दोनों प्रकारका होता । कारणका विचार कर कथन कर लेना चाहिए। स्थान संज्ञाकी दृष्टिसे विचार करनेपर कहाँ किस स्थानरूप अनुभाग प्राप्त होता है इसका परिज्ञान कोष्ठकद्वारा कराया जाता है प्रकृति मिथ्यात्व, बारहकषाय छह नोकषाय सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्व चार संज्वलन, पुरुषवेद स्त्रीवेद, नपुंसक वेद उत्कृष्ट Jain Education International चतुःस्था ० द्विस्था० द्विस्था० चतुः अनुत्कृष्ट चतुः चतुः, त्रि०, द्वि० द्वि०, एक० द्विस्था० च०, त्रि०, द्वि०, एक० च०, एक० त्रि, द्वि०, जघन्य द्विस्था० एकस्था ० द्विस्था ० एकस्था० द्वि०, त्रि०, चतुः arat और नपुंसकवेदी जीवोंके स्वोदयसे क्षपक देखि पर चढ़ने पर अन्तिम निषेकके उदय समयमें एकस्थानिक जघन्य अनुभाग होता है, इसलिए इन दोनों वेदोंका अजघन्य अनुभाग एकस्थानिक नही कहा है । एकस्था० अजघन्य For Private & Personal Use Only द्वि०. त्रि०, च०, एक०, द्वि० द्विस्था० एक०, द्वि०, त्रि०, चतुः www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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